चैतन्य स्वभावरूपे ज परिणमे अने रागादिरूपे न परिणमे–एवुं तेनुं स्वरूप छे.
स्वभाव थई जाय. आ रीते आत्मानी तत्–अतत्शक्तिओने समजतां जडथी ने विकारथी जुदो चेतनस्वभाव
समजाय छे, पोतानो आत्मा चेतनस्वभावमय रहे छे ने विकारमय थतो नथी–एवुं भेदज्ञान थाय छे,–ते धर्म छे.
पछी ते धर्मनी भूमिकामां जे जे शुभ–अशुभ परिणामो आवे तेने धर्मी जीव पोताना स्वभावथी अतद्रूपे ज्ञेयपणे
जाणे छे, एटले स्वभावनी ज अधिकता तेने रहे छे ने विकारनी हीनता ज थती जाय छे. आवी अंर्तदशा थया
वगर व्रत के त्यागना शुभ परिणाम करे तेनी किंमत कांई नथी, तेनुं फळ पण संसार ज छे. वर्तमान परिपूर्ण शुद्ध
चिदानंद स्वभावनी उपादेय–बुद्धि थतां समस्त परभावोमां हेयबुद्धि थई गई, ते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे,
अने ते ज चारित्र माटेनी भूमिका छे. आवी भूमिका वगर धर्ममां आत्मानो प्रवेश थई शकतो नथी.
खोटी छे. समज्या पछी पण तारा मानेला व्रतादि नहि आवे, शुद्धता वगरना एकला रागने ते व्रतादि मान्या छे
पण एवुं व्रतनुं स्वरूप छे ज नहि. अने तारा मानेला एकला शुभ रागरूप व्रतादि अनंत काळ कर तो पण तेनाथी
आत्मानी समजण थाय नहि. भाई, रागना रस्ता जुदा छे ने धर्मनी समजणना रस्ता जुदा छे. रागने धर्मनो
रस्तो तें मानी लीधो, तेमां तो ऊंधी समजणनुं पोषण थाय छे.
चिदानंद स्वभावमां एकाग्रता थतां ज सहेजे रागरहित परिणति थई जाय छे ने विकार छूटी जाय छे,–तेनुं नाम
विकारनो त्याग छे; माटे पहेलां आत्माना शुद्ध स्वभावनी ओळखाण करी होय तो ज तेमां एकाग्रतावडे विकारनो
त्याग थई शके. आ सिवायजडनो त्याग करवानुं माने ते तो आत्माने जड साथे एकमेक माने छे, एटले तेणे जडथी
भिन्न आत्माने ओळख्यो नथी. जेम–वाणीयाने कोई कहे के तुं मांस छोड, तो तेणे वाणीयाने ओळख्यो नथी केमके
वाणीयानो स्वभाव मांसना त्यागरूप ज छे, वाणीयाए मोढामां मांस पकडयुं ज नथी, तो छोडे शुं? तेम जे अज्ञानी
परने छोडवानुं माने छे तेणे परथी भिन्न आत्माने ओळख्यो ज नथी, आत्मानो स्वभाव परना तो त्यागरूप ज छे.
आत्माए परवस्तुने पकडी ज नथी तो छोडे कोने? अहीं तो स्वभावद्रष्टि मां विकारने छोडुं” एवो पण विकल्प
नथी केमके स्वभावमां विकारनुं ग्रहण थयुं ज नथी. आवा स्वभावमां जे पर्याय अभेद थई ते पर्याय पण स्वयमेव
विकारना अभावरूप ज छे; स्वभावमां ते तद्रूप छे ने विकारमां अतद्रूप छे. आत्मा जडथी अतद्रूप छे, एटले जडना
संग वगरना एकला आत्माने लक्षमां लेतां ते शुद्ध ज छे, तेनामां विकार नथी.
परिणमन थाय ते तद्रूप परिणमन छे, पण अज्ञानरूपे परिणमन थाय ते तद्रूप न कहेवाय; ए ज रीते श्रद्धानुं
सम्यक्श्रद्धारूपे परिणमन थाय ते तद्रूप–परिणमन छे, पण मिथ्यात्वरूपे परिणमन थाय ते तद्रूप न कहेवाय;
आनंदनुं आनंदरूपे परिणमन थाय ते तद्रूप परिणमन छे, पण आकुळतारूपे परिणमन थाय तेने तद्रूप न
कहेवाय. चारित्रनुं स्वरूपमां लीनतारूप वीतरागी परिणमन थाय ते तद्रूप–परिणमन छे, पण रागरूप परिणमन
थाय ते तद्रूप न कहेवाय, एम बधा गुणोनो तद्रूप–परिणमन स्वभाव छे, ने विकार साथे अतद्रूप रहेवानो
स्वभाव छे. आवा स्वभावने नहि जाणनार अज्ञानी रागमां