सम्यक्त्वप्राप्तिने माटे देशनालब्धिमां अज्ञानीने निमित्त मानवुं अथवा तो एकला शास्त्रने निमित्त मानवुं ते एक
बहु मोटी भूल छे.
नेमीचन्द्राचार्यदेव वगेरे दिगंबर संतोनुं स्मरण करीने ज्यारे आपश्री भक्तिथी कहो छो के ‘अहो! छठ्ठा–सातमा
गुणस्थाने आत्माना आनंदमां झूलनारा....ने...वनजंगलमां वसनारा ए वीतरागी संत मुनिवरोनी शी वात
करीए!! अमे तो तेमना दासानुदास छीए. हजी अमारी मुनि दशा नथी, अत्यारे तो तेनी भावना भावीए छीए.
ए मुनिदशानी तो शी वात! परंतु एना दर्शन थवा ते पण महाधनभाग्य छे.
चारित्रद्वारा ज मुनिपद होय छे, अने ज्यारे आवुं मुनिपद थाय त्यारे वस्त्रादिकनो त्याग पण सहेजे होय ज छे.
स्वतंत्र छे–आ वात तेओ अनेक द्रष्टांत, युक्ति अने शास्त्रीय प्रमाणोथी सारी रीते समजावे छे; अने कहे छे के जीव
निमित्ताधीन–पराश्रित बुद्धिथी ज संसारमां भटकी रह्यो छे. निमित्ताधीन द्रष्टिनुं परिणमन छोडीने पोताना
स्वाधीनस्वभावनी सन्मुख परिणमन करवुं ते ज मुक्तिनो मार्ग छे.
निश्चयस्वभावना आश्रयथी ज मुक्तिमार्ग छे, व्यवहारना–शुभरागना आश्रयथी कदापि मुक्ति थती नथी. वळी
एम पण नथी के मुक्तिमार्गमां पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय. निश्चय विना साचो व्यवहार होतो नथी.
व्यवहार करतां करतां तेना अवलंबनथी निश्चय थई जशे–एवी जेनी मान्यता छे तेने दि. जैनसिद्धांतमां
‘व्यवहारमूढ’ कह्यो छे. निश्चय–व्यवहारना आ महत्वपूर्ण सिद्धांतने तेओ घणा विवेचनथी समजावे छे अने
भारपूर्वक कहे छे के आ जैनधर्मनी मूळ चीज छे; आमां जेनी भूल छे ते जैनधर्मना रहस्यने समजी शकतो नथी.
निश्चयना आश्रय वगर कदी धर्मनी शरूआत पण थती नथी.
पूजनादिनो राग आव्या विना रहेतो नथी. जो देव–गुरु–शास्त्रना दर्शन–पूजनादिनो भाव न आवे तो ते स्वच्छंदी
छे. अने जो ते रागमां ज धर्म मानीने रोकाई जाय ने सम्यग्दर्शनादिनो प्रयत्न न करे तो ते पण अज्ञानी छे, माटे
कई भूमिकामां केवो राग होय छे अने धर्मनुं शुं स्वरूप छे; ए बंनेनुं भिन्न भिन्न स्वरूप ओळखवुं जोईए. पू.
गुरुदेव ज्यारे चरणानुयोग द्वारा गृहस्थोनुं
श्रावणः २४८३