Atmadharma magazine - Ank 166
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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(३) देशनालब्धि
पू. गुरुदेव कहे छे के एक वार पण ज्ञानी गुरुना उपदेशनुं सीधुं श्रवण कर्या वगर कोई पण जीवने
देशनालब्धि थई शकती नथी–ए जिनसिद्धांतनो नियम छे. अज्ञानीना उपदेशवडे कदी देशनालब्धि थई शकती नथी.
सम्यक्त्वप्राप्तिने माटे देशनालब्धिमां अज्ञानीने निमित्त मानवुं अथवा तो एकला शास्त्रने निमित्त मानवुं ते एक
बहु मोटी भूल छे.
(४) चारित्रमय मुनिदशानो अचिंत्य महिमा
तेओश्रीना प्रवचनमां वारंवार दिगंबर संत मुनिवरो प्रत्ये भक्तिभरेला उदगारो नीकळे छे. णमो लोए
सव्वसाहूणं पदनुं ज्यारे तेओ विवेचन करे छे त्यारे श्रोताजनो मुनिवरोनी भक्तिथी गदगद रोमांचित थई जाय
छे भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव, धरसेनाचार्यदेव, वीरसेनाचार्यदेव, जिनसेनाचार्यदेव, समन्तभद्राचार्यदेव,
नेमीचन्द्राचार्यदेव वगेरे दिगंबर संतोनुं स्मरण करीने ज्यारे आपश्री भक्तिथी कहो छो के ‘अहो! छठ्ठा–सातमा
गुणस्थाने आत्माना आनंदमां झूलनारा....ने...वनजंगलमां वसनारा ए वीतरागी संत मुनिवरोनी शी वात
करीए!! अमे तो तेमना दासानुदास छीए. हजी अमारी मुनि दशा नथी, अत्यारे तो तेनी भावना भावीए छीए.
ए मुनिदशानी तो शी वात! परंतु एना दर्शन थवा ते पण महाधनभाग्य छे.
आप स्पष्ट कहो छो के जिनशासनमां वस्त्रसहित मुनिदशा कदी होती नथी, अने अंतरमां आत्मज्ञान वगर
एकला दिगंबरपणाथी पण मुनिपद होतुं नथी. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान उपरांत अंतरमां लीनतारूप
चारित्रद्वारा ज मुनिपद होय छे, अने ज्यारे आवुं मुनिपद थाय त्यारे वस्त्रादिकनो त्याग पण सहेजे होय ज छे.
(प) उपादान – निमित्त
कोई पण वस्तुमां पोतानी योग्यताना सामर्थ्यथी ज्यारे कार्य थाय त्यारे बीजा निमित्तनी उपस्थिति
नियमरूपे होवा छतां पण, कार्यमां तेनुं अकिंचित्करपणुं छे; उपादान अने निमित्त बंनेनुं परिणमन एकबीजाथी
स्वतंत्र छे–आ वात तेओ अनेक द्रष्टांत, युक्ति अने शास्त्रीय प्रमाणोथी सारी रीते समजावे छे; अने कहे छे के जीव
निमित्ताधीन–पराश्रित बुद्धिथी ज संसारमां भटकी रह्यो छे. निमित्ताधीन द्रष्टिनुं परिणमन छोडीने पोताना
स्वाधीनस्वभावनी सन्मुख परिणमन करवुं ते ज मुक्तिनो मार्ग छे.
(६) निश्चय – व्यवहार
निश्चय–व्यवहार संबंधमां पण आपनी विवेचन शैली अजोड छे. निश्चय–व्यवहारनुं रहस्य आप जे ढंगथी
समजावो छो ते समजतां ज समस्त जिनसिद्धांतनुं रहस्य खोलवानी चावी हाथमां आवी जाय छे. आप कहो छो के
निश्चयस्वभावना आश्रयथी ज मुक्तिमार्ग छे, व्यवहारना–शुभरागना आश्रयथी कदापि मुक्ति थती नथी. वळी
एम पण नथी के मुक्तिमार्गमां पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय. निश्चय विना साचो व्यवहार होतो नथी.
व्यवहार करतां करतां तेना अवलंबनथी निश्चय थई जशे–एवी जेनी मान्यता छे तेने दि. जैनसिद्धांतमां
‘व्यवहारमूढ’ कह्यो छे. निश्चय–व्यवहारना आ महत्वपूर्ण सिद्धांतने तेओ घणा विवेचनथी समजावे छे अने
भारपूर्वक कहे छे के आ जैनधर्मनी मूळ चीज छे; आमां जेनी भूल छे ते जैनधर्मना रहस्यने समजी शकतो नथी.
निश्चयना आश्रय वगर कदी धर्मनी शरूआत पण थती नथी.
() रुस्त्र िक्तजा
जे जीवने धर्मनी प्रीति छे तेने सम्यग्दर्शन पहेलां तेमज सम्यग्दर्शन पछी पण, ज्यां सुधी राग रहे छे
त्यांसुधी, ‘राग ते धर्म नथी’ एवुं भान होवा छतां, वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये अतिशय भक्ति–बहुमान–
पूजनादिनो राग आव्या विना रहेतो नथी. जो देव–गुरु–शास्त्रना दर्शन–पूजनादिनो भाव न आवे तो ते स्वच्छंदी
छे. अने जो ते रागमां ज धर्म मानीने रोकाई जाय ने सम्यग्दर्शनादिनो प्रयत्न न करे तो ते पण अज्ञानी छे, माटे
कई भूमिकामां केवो राग होय छे अने धर्मनुं शुं स्वरूप छे; ए बंनेनुं भिन्न भिन्न स्वरूप ओळखवुं जोईए. पू.
गुरुदेव ज्यारे चरणानुयोग द्वारा गृहस्थोनुं
श्रावणः २४८३
ः पः