Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८३ : आत्मधर्म : ९ :
प्रवासी थयो छे तेथी ‘हवे मारे अनंत संसार हशे’ एवी शंका तेने होती ज नथी, तेने स्वभावना जोरे एवी
निःशंकता छे के हवे अल्प ज काळमां मारी मुक्तदशा खीली जशे, आत्मानो आनंदमय चैतन्य स्वभाव छे, ते
स्वभावमां भव नथी, स्वभावमां शंका नथी, स्वभावमां भय नथी, स्वभावमां विकार नथी, ––आवा
स्वभावनो निर्णय करीने ज्यां तेनी सन्मुख परिणमन थयुं त्यां भव रहेतो नथी, शंका रहेती नथी, भय रहेतो
नथी ने विकार रहेतो नथी, तेथी धर्मी निःशंक छे, निर्भय छे, विकारनो ने भवनो ते नाशक छे, ने शुद्धतानो ते
उत्पादक छे; अल्पकाळमां पूर्ण विकारनो नाश ने शुद्धतानी उत्पत्ति करीने ते मुक्ति पामे छे.
एक आत्म द्रव्य अनेक पर्यायमय थवानी ताकातवाळुं छे, द्रव्य पोतानी अनेक पर्यायोमां व्यापे एवी
तेनी अनेकत्व शक्ति छे; एटले परना कारणे पर्याय थाय ए वात रहेती नथी. जे व्यापे ते कर्ता, पर्यायमां द्रव्य
ज व्यापे छे तेथी द्रव्य ज पोतानी पर्यायनुं कर्ता छे. अनेक पर्यायोमां व्यापवारूप पोतानी शक्तिने ओळखे तो
‘मारी पर्यायनुं कारण पर हशे’ एवी मान्यता रहे नहि, पण द्रव्यनो आश्रय करीने निर्मळ पर्याय थाय. अनेक
पर्यायो थती होवा छतां मारी बधी पर्यायो मारा एक आत्माथी ज व्याप्य छे, बीजा कोईथी व्याप्य नथी, एम
नक्की करीने हे जीव! पर्यायने वाळ तारा द्रव्यमां.
पर्यायनो स्वभाव एवो छे के ते द्रव्यथी व्यपाय अने द्रव्यनो स्वभाव एवो छे के ते पर्यायोमां व्यापे.
ए रीते ज्ञानपर्याय पण पोताना द्रव्यथी व्याप्त थाय एवुं तेनुं स्वरूप छे, छतां ते ज्ञानपर्याय पोतामां व्यापक
एवा आत्मस्वभावने न देखतां एकला परज्ञेयोने ज देखे तो ते अज्ञान छे, तेने खरेखर आत्मानी पर्याय
कहेता नथी, तेमां आत्मा व्याप्यो नथी. ज्ञानपर्याय कोनी छे? के आत्मद्रव्यनी; ते ज्ञानपर्याये आत्मद्रव्य तरफ
झूकीने तेनो निर्णय करवो जोईए, ते न करतां पर तरफ झूकीने ‘रागादि ते ज हुं’ एम माने छे तो ते ज्ञाने
पोतानुं ज्ञान तरीकेनुं काम न कर्युं, एटले ते ज्ञान मिथ्या थयुं. पोतानी पर्यायने पोताना आत्माथी व्याप्त न
करतां रागथी ज व्याप्त करी तो तेने खरेखर आत्मानी पर्याय कहेता नथी. आत्मानी पर्याय तो तेने कहेवाय के
जेमां आत्मानी व्याप्ति होय, आत्मानी प्रसिद्धि होय. अने ज्यां सुधी ज्ञान अंतर्मुख थईने स्वद्रव्यनो निर्णय न
करे त्यां सुधी परनो पण साचो निर्णय करवानी ताकात ते ज्ञानमां होती नथी, एटले एवा ज्ञानने ज्ञान कहेता
नथी, ते तो अज्ञान छे.
मारी पर्यायमां मारुं अखंड द्रव्य व्यापक छे––एम नक्की करीने पछी जे जे पर्याय थाय छे ते दरेक पर्याय
त्रिकाळी द्रव्यने साथे ने साथे राखीने थाय छे, अर्थात् पर्याये पर्याये त्रिकाळी द्रव्यनुं अवलंबन वर्ते छे, अने
त्रिकाळीद्रव्यना अवलंबने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे शुद्धपर्यायो थती जाय छे. त्रिकाळी तत्त्वना स्वीकार
विना–आश्रय विना–पर्यायनी निर्मळता थती नथी, सम्यग्ज्ञान थतुं नथी, अने सम्यग्ज्ञान वगर निमित्तनुं के
व्यवहारनुं पण खरुं ज्ञान थतुं नथी.
अहीं ३२ मी शक्तिमां बताववुं छे तो अनेकपणुं, परंतु तेनी साथे साथे “एक द्रव्य व्याप्य”... एम
कहीने द्रव्य द्रष्टि पण भेगी ज राखी छे. आचार्यदेवनी गजब शैली छे, घणी गंभीरता भरी छे. अनेक पर्याय
थती होवा छतां द्रव्यनी एकतानुं अवलंबन छूटतुं नथी एटले निर्मळ–निर्मळ पर्यायो ज थती जाय छे. ––एम
साधक भूमिकाथी वात करी छे. साधकनी श्रद्धा ‘एक द्रव्य’ तरफ वळी छे, तेनुं ज्ञान ‘एक द्रव्य’ तरफ वळेलुं छे.
तेनी एकाग्रता पण ‘एक द्रव्य’ तरफ ज छे. ए रीते ‘एक द्रव्य’ ने अवलंबीने ज (–शुध्ध आत्मस्वभावने
अवलंबीने ज) साधक दशा वर्ती रही छे, तेना ज अवलंबने शुध्धता वधतां वधतां पूर्ण शुद्धतारूप सिद्धदशा
थई जशे.
मारी बधी पर्यायो मारा एक द्रव्यथी ज व्याप्त छे–एम नक्की करनारे कोनी सामे जोईने ते नक्की कर्युं?
शुं परनी सामे, विकारनी सामे के एकली पर्यायनी सामे जोईने ते नक्की कर्युं? ना, एनी सामे जोईने ते नक्की
थई शके नहि; पण पर्यायने शुद्ध एकरूप द्रव्य तरफ वाळीने–द्रव्य सन्मुख थईने ज नक्की कर्युं छे के अहो! मारी
पर्यायोमां तो आवुं आत्मद्रव्य ज व्यापेलुं छे; परमां के विकारमां व्यापे एवुं मारा आत्मद्रव्यनुं स्वरूप नथी,
पण निर्मळ पर्यायोमां