Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८३ : आत्मधर्म : ११ :
ज्ञानीनुं अंर्त परिणमन
[समयसार गा. २१४ ना प्रवचनमांथी:
वीर सं. २४८३, जेठ सुद १४]
आत्मामां जे राग–द्वेषादि परिणामो छे तेनुं बहिर्मुखपणुं छे, अने आत्मानो अंतर्मुखस्वभाव तो ज्ञान
ने आनंद छे. धर्मीने पोताना अंतर्मुखस्वभावनी द्रष्टिना परिणमनमां रागादि साथे एकता नथी, तेने पोताना
ज्ञान–आनंद स्वभावमां ज एक्ता छे. ज्ञान–आनंद–स्वभावनुं ज अंर्त अवलंबन धर्मीने वर्ते छे, ते सिवाय
परद्रव्य अने परभावोमां सर्वत्र ते निरालंबन छे; परभावोनुं अवलंबन धर्मीनी द्रष्टिमांथी छूटी गयुं छे तेथी
ते सर्वत्र निरालंबन छे, ने अंतरमां ज्ञायक भावनुं ज अवलंबन लईने ते निश्चल ज्ञायक भावरूपे ज रहे छे.
पर्यायमां अल्प रागादि थाय छे पण धर्मी ते राग साथे पोताना उपयोगनी एकता करतो नथी, उपयोगनी
एकता चैतन्यभूमिमां ज करे छे. तेना अभिप्रायमां स्वभाव अने विभावनी भिन्नता ज वर्ते छे. एटले
धर्मात्माने ज्ञायकभाव साथेनी एकताना परिणमनमां रागादि भावोनी निर्जरा ज थती जाय छे ने शुद्धता
वधती जाय छे, एनुं नाम धर्म छे.
अंतरमां ज्ञायकस्वभावना अवलंबने स्थिर रहेतां आहार आदिनी वृत्ति ज छूटी जाय तेनुं नाम
उपवासादि तप छे. आवो तप तो आनंद अने शांतिदायक छे; पण अज्ञानीने तपमां कष्ट लागे छे,
ज्ञानस्वभावना अवलंबननी तेने खबर नथी. छह–ढाळामां कहे छे के––
“आतम हित–हेतु विरागज्ञान,
ते लखें आपकुं कष्टदान।।”
जे ज्ञानवैराग्य आत्माना हितनुं कारण छे तेने अज्ञानी कष्टरूप माने छे; अने रागादिभावो प्रगटपणे
दुःखरूप होवा छतां अज्ञानी तेमां चेन मानीने तेनुं सेवन करे छे. तेथी ते अज्ञानी बाह्य पदार्थोनुं अवलंबन
छोडीने अंर्तस्वभावनुं अवलंबन करतो नथी.
धर्मी शुं करे छे? सर्वत्र बाह्य अवलंबन छोडीने अंतरना ज्ञायक स्वभावनुं अवलंबन करीने निर्मळ
ज्ञानस्वरूप आत्माने अनुभवे छे अने ज्ञायकभावना अवलंबनमां लीन रहेतां, गमे तेवा अनुकूळ–प्रतिकूळ
प्रसंगमां राग–द्वेषनी उत्पत्ति ज नथी थती, तेनुं नाम परिषहजय छे. ज्ञानानंद स्वभाव ज आत्मानुं ईष्ट छे, ने
विभाव ते अनीष्ट छे. सर्वज्ञभगवाने ईष्टनी प्राप्ति करी छे, ने अनीष्टनो नाश कर्यो छे. परद्रव्य आत्माने कंई
ईष्ट के अनीष्ट नथी.
जुओ, आ अमृतचंद्राचार्यनां अमृत घुंटाय छे.
अमृतपिंड ज्ञायकस्वभाव छे, तेमां अंतर्मुख थईने तेनी साथे एकता करीने, धर्मी जीव एक
ज्ञायकभावपणे ज रहे छे. भिन्नभिन्न पर्यायो थती होवा छतां