ज्ञान–आनंद स्वभावमां ज एक्ता छे. ज्ञान–आनंद–स्वभावनुं ज अंर्त अवलंबन धर्मीने वर्ते छे, ते सिवाय
परद्रव्य अने परभावोमां सर्वत्र ते निरालंबन छे; परभावोनुं अवलंबन धर्मीनी द्रष्टिमांथी छूटी गयुं छे तेथी
ते सर्वत्र निरालंबन छे, ने अंतरमां ज्ञायक भावनुं ज अवलंबन लईने ते निश्चल ज्ञायक भावरूपे ज रहे छे.
पर्यायमां अल्प रागादि थाय छे पण धर्मी ते राग साथे पोताना उपयोगनी एकता करतो नथी, उपयोगनी
एकता चैतन्यभूमिमां ज करे छे. तेना अभिप्रायमां स्वभाव अने विभावनी भिन्नता ज वर्ते छे. एटले
धर्मात्माने ज्ञायकभाव साथेनी एकताना परिणमनमां रागादि भावोनी निर्जरा ज थती जाय छे ने शुद्धता
वधती जाय छे, एनुं नाम धर्म छे.
ज्ञानस्वभावना अवलंबननी तेने खबर नथी. छह–ढाळामां कहे छे के––
छोडीने अंर्तस्वभावनुं अवलंबन करतो नथी.
प्रसंगमां राग–द्वेषनी उत्पत्ति ज नथी थती, तेनुं नाम परिषहजय छे. ज्ञानानंद स्वभाव ज आत्मानुं ईष्ट छे, ने
विभाव ते अनीष्ट छे. सर्वज्ञभगवाने ईष्टनी प्राप्ति करी छे, ने अनीष्टनो नाश कर्यो छे. परद्रव्य आत्माने कंई
ईष्ट के अनीष्ट नथी.
अमृतपिंड ज्ञायकस्वभाव छे, तेमां अंतर्मुख थईने तेनी साथे एकता करीने, धर्मी जीव एक