Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : भादरवो : २४८३ :
ज्ञायकस्वभाव साथेनी एकता तूटती नथी, तेथी ते ‘एक ज्ञायकभाव’ पणे ज रहे छे एम कह्युं.
जुओ भाई! आनंद अने शांति तो आत्म वस्तुमां छे. आनंद अने शांति ज्यां होय त्यांथी
आवे के बीजेथी? आनंद अने शांति अंतरमां छे, तेमां अंतर्मुख थवाथी ज आनंद अने शांतिनो
अनुभव थाय छे, बहारमां कोईना अवलंबने आनंद के शांतिनुं वेदन थतुं नथी, अंतरमां भावभासन
थईने स्वभावनो स्वीकार थवो जोईए. अनादिथी बहिर्मुखपणे क्षणेक्षणे रागादि परभावनी पक्कड करी
छे, तेने पलटीने पर्यायने अंतर्मुख करीने ज्ञायकस्वभावनो ज्यां स्वीकार थयो त्यां स्वभावना ज्ञान–
आनंदनुं वेदन थतुं. बहिर्मुखपणामां अशांति अने आकुळतानुं वेदन हतुं. अंतर्मुख थयो त्यां धर्मात्माने
पोताना ज्ञायकभाव सिवाय बीजा कोई पण परभावोनी पक्कड नथी, माटे तेने कोईपण परभावोनो
परिग्रह नथी, ते एक ज्ञायकभावपणाने लीधे अने सर्व परभावोनी पक्कड छूटी गई होवाने लीधे
अत्यंत निष्परिग्रही छे. आम अंतरमां ज्ञायकभावनी पक्कड थई छे, त्यां बहारना समस्त परभावोनी
पक्कड छूटी गई छे, ए रीते ज्ञानी ने परभावोंनो जरापण परिग्रह नहि होवाथी तेने निर्जरा ज छे.
जेने ज्ञायकभावनी पक्कड नथी ने रागादि परभावोनी पक्कड छे ते अज्ञानी छे, ने तेने ज बंधन थाय छे.
ज्ञानी धर्मात्माने अंतरमां ज्ञायकभाव साथेनी एकतामां रागनो वियोग छे. हजी राग वर्ततो
होवा छतां ते रागनी क्षणे पण धर्मीने ज्ञायकस्वभावमां ज एकता छे ने रागमां एकता नथी, माटे तेने
रागनो वियोग छे. अने रागनो वियोग होवाथी परद्रव्यनो संयोग तेने बंधनुं कारण थतो नथी, तेने
निर्जरा ज थाय छे. ज्ञानीनी द्रष्टिनो संबंध आत्मा साथे जोडायो छे ने परसाथेनो संबंध तूटी गयो छे,
तेथी परद्रव्यनो परिग्रह ज्ञानीने नथी, ने परिग्रह नहि होवाथी तेने बंधन पण थतुं नथी, एटले तेने
निर्जरा ज थाय छे. अज्ञानीने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी, ने रागादि साथे तथा पर साथे एकता
मानीने तेनो परिग्रह करे छे, तेनो ए परसाथेनो ममत्वभाव ज तेने बंधनुं कारण छे.
भाई! तारुं हित केम थाय तेनी आ वात छे, ते एक वार तुं लक्षमां ले. अंतरमां तारी चीज शुं
छे तेनी ओळखाण वगर बहारथी हित आवे तेम नथी. तारा हितनुं धाम तो तारा आत्मामां ज छे,
मारो आत्मा ज हितनो भंडार छे, मारा आत्मा सिवाय आखा जगतमां बीजा कोईना आश्रये मारुं
हित नथी–एम द्रढ निर्णय तो कर. जो आवो यथार्थ निर्णय हशे तो परिणतिनो वेग अंर्तमुख वळशे;
ने अंतर्मुख वलणथी ज अपूर्व हितनी प्राप्ति थशे. अनंतअनंत काळना बहिर्मुख वलणथी जे हित प्राप्त
नथी थयुं, ते अपूर्व हितनी प्राप्ति क्षणमात्रमां अंतर्मुख वलणवडे थशे. अंतर्मुख शोध करी करीने ज
संतोए पोताना परम हितने साध्युं छे, ने तेओ ए अंतर्मुख थवानो ज उपदेश आप्यो छे. आ अंतर्मुख
थवानो उपदेश ते ज हितोपदेश छे; आ सिवाय बहिर्मुखपणाथी लाभ थवानुं जे कहेता होय ते
हितोपदेश नथी पण मिथ्या उपदेश छे–एम समजवुं.
धर्मीने केवी अंत् परिणतिथी निर्जरा थाय छे, तेनी आ वात छे; निर्जरा एटले क्षणेक्षणे शुद्धिनी
वृद्धि, अशुध्धतानो नाश, अने कर्मोनुं झरी जवुं. “हुं ज्ञान स्वभाव छुं” एवी अंतरमां ज्ञानस्वभावनी
पकडने लीधे क्षणे क्षणे शुध्धता ज थती जाय छे. राग होवा छतां एक क्षण पण ज्ञानस्वभावनी अधिकता
छूटीने रागनी अधिकता धर्मीने थती नथी माटे धर्मीने बंधन होतुं नथी पण निर्जरा ज थती जाय छे.
धर्मी जाणे छे के हुं तो एक ज्ञानभाव ज छुं, ज्ञानथी भिन्न कंई पण मारुं नथी; परनां कार्यो
मारां नथी. आवा सम्यग्ज्ञानवंत धर्मी रागथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळा छे; जेम कमळ पाणीमां
रह्युं छतां ते पाणीथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळुं छे तेम ज्ञानी रागथी अलिप्त रहेवाना स्वभाववाळो
छे; रागथी ज्ञान लेपाई जतुं नथी, पण रागना त्यागरूप स्वभावे ज ते वर्ते छे. आ रीते भेदज्ञानना
बळे ज्ञानीने सहज वैराग्य होय छे अने आवा ज्ञान–वैराग्यना बळे तेने निरंतर निर्जरा ज थाय छे.