Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८३ : आत्मधर्म : १३ :
ज्ञानकला जिसके घट जागी
ते जगमाहीं सहज वैरागी।
ज्ञानी मगन विषयसुखमाहीं
यह विपरीत संभवे नाहीं।।
जुओ, आ ज्ञानीनी दशा! पंडित बनारसीदासजी कहे छे के, अहो! जेनां अंतरमां भेदज्ञानरूप कळा
जागी छे ते आ जगतमां सहज वैरागी छे; आवा ज्ञान–वैराग्यवंत धर्मात्मा बाह्य विषयोमां सुख मानीने तेमां
मग्न थाय, एवुं विपरीतपणुं कदी संभवतुं नथी. ज्ञानी ज्ञानस्वभावमां मग्न छे, राग के बाह्य विषयो होवा छतां
तेमां ते मग्न नथी, माटे ज्ञानी कर्मथी लेपाता नथी, तेने नवां कर्मो बंधाता नथी पण जूनां कर्मो निर्जरता ज
जाय छे अज्ञानीने तो ज्ञानस्वभावनुं भान नथी, ते रागमां तथा विषयोमां ज लीनपणे वर्ते छे तेथी ते कर्मोथी
बंधाय छे. ज्ञानीनो स्वभाव, सोनानी जेम कर्मपंकथी अलिप्त रहेवानो छे, ने अज्ञानीनो स्वभाव, लोढानी जेम
कर्मपंकथी लेपावानो छे.
हवे कहे छे के, ज्ञानीए पोताना ज्ञानस्वभावने रागथी ने परथी भिन्न जाण्यो छे, तेमां ते निःशंक छे,
एटले बाह्यसंयोगने देखतां ‘आनाथी हुं बंधाईश’ एवी शंका तेने थती नथी, निःशंकपणे ते पोताना ज्ञानभावे
ज परिणमे छे, ने ज्ञानभावनुं परिणमन तो बंधनुं कारण नथी, तेथी धर्मीने बंधन थतुं नथी.
जगतना कोई संयोगमां एवी ताकात नथी के ज्ञानीना ज्ञानमय भावने पलटावीने अज्ञानरूप करी शके,
माटे संयोग ते बंधनुं कारण नथी; तेमज ज्ञानीनो ज्ञानमयभाव पण बंधनुं कारण नथी; माटे ज्ञानीने बंधन
थतुं नथी. कर्मफळना संयोगमां ऊभो होवा छतां ते संयोग देखीने ज्ञानीने शंका पडती नथी के आ मने बंधनुं
कारण थशे... ते तो निःशंकपणे पोताना ज्ञानमय भावमां ज वर्ते छे. अनुकूळताना ढगला हो के प्रतिकूळताना
गंज हो, छतां ज्ञानीनुं ज्ञान कदी अज्ञानरूप थई जतुं नथी. केमके ज्ञानी पोताना स्वभावथी ज ज्ञानभावरूपे
परिणमे छे, कोई परवस्तु तेना स्वभावने अन्यथा करी शकती नथी. परने लीधे बंधन थाय एवी शंका ज्ञानीने
कदी पडती नथी. आवी ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करीने निःशंकपणे ज्ञानभावमां परिणमवुं ते निर्जरानो उपाय छे,
ने ते ज धर्म छे.
अंतर्मुख थईने आत्माने शोध––
अंतर्मुख थईने आत्मानी ज्ञानादि शक्तिओ ज्यां परिपूर्ण सोळ कळाए
खीली गई, त्यां पछी ते कदी ढंकाती नथी. आत्मामां ज पोताना स्वभावनुं
साधन थवानी ताकात छे. ए सिवाय बहारना शास्त्रोमां पण एवी ताकात
नथी के आत्मानुं साधन थाय.
जिज्ञासु विचारे छे के––अरेरे! पूर्वे में अनंती वार मोटा मोटा
व्याकरणशास्त्रो वांच्या, मोटा शास्त्रोनां व्याख्यानो में कर्यां ने सत्समागमे
सांभळ्‌या; पण शुद्ध चिद्रूप आत्माने में कदी न जाण्यो तेथी मारुं परिभ्रमण
थयुं. बहारमां में आत्माने शोध्यो पण अंतर्मुख थईने कदी में मारा आत्माने
न शोध्यो.
–पू. श्री. कानजीस्वामी [खंभात–प्रवचन]