Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४८३ :
––परम शांति दातारी––
* अध्यात्म भावना *
भगवानश्री पूज्यपादस्वामी रचित
‘समाधिशतक’ उपर परमपूज्य
सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीना अध्यात्मभावना–भरपूर
वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
* (७) *
[वीर सं. २४८२, वैशाख वद दसम. समाधिशतक गा. ७]
आत्मानुं वास्तविक स्वरूप जाण्या वगर देहादिने पोतानां मानीने जीव अनादिकाळथी दुःखी थई रह्यो
छे, ते दुःख कहो के असमाधि कहो; ते टळीने सुख अथवा समाधि केम थाय तेनी आ वात छे.
जुओ, भाई! दुःख तो कोने प्रिय छे!! जगतमां कोईने दुःख वहालुं नथी. ज्ञानीओने जगतना दुःखी
प्राणीओ उपर करुणाबुद्धि वर्ते छे. पोते जे दुःखथी छूटवा मांगे छे ते दुःख बीजा पामे एवी भावना ज्ञानीने
केम होय? ज्ञानीने तो एवी सहज करुणा आवे छे के अरेरे! आ जीवो बीचारा पोताना स्वरूपने भूली जईने
अज्ञानने लीधे महान दुःखमां डुबेलां छे, एनाथी छूटवाना उपायनी पण तेमने खबर नथी! हुं जे परिपूर्ण
सुखने प्राप्त करवा चाहुं छुं ते सुख बीजा जीवो पण पामे–एम ज्ञानीने तो अनुमोदना छे. उपदेशमां तो ज्ञानी–
धर्मात्मा के वीतरागी संतमुनिओ पण एम कहे के “जे जीवो धर्मनो तीव्र विरोध करशे के तीव्र पापभावो करशे
ते जीवो मिथ्यात्वना सेवनथी नरक–निगोदमां रखडशे ने अनंत दुःख पामशे” –आम कहेवामां ज्ञानी–संतोने
कांई कोई व्यक्ति प्रत्ये द्वेषबुद्धि नथी, तेमज तेमने कांई कोई जीवने नरक–निगोदमां मोकलवानी भावना नथी;
परंतु उलटी करुणाबुद्धि छे–हितबुद्धि छे, एटले यथार्थ वस्तुस्थिति बतावीने जीवोने मिथ्यात्वथी छोडाववा मांगे
छे. हे भाई! मिथ्यात्वनुं आवुं आकरुं फळ छे, एम जाणीने तुं ते मिथ्यात्वनुं सेवन छोडी दे, ने आत्मानुं स्वरूप
समज–जेथी तारुं हित थाय! आम हित माटे ज ज्ञानीनो उपदेश छे–पण शुं थाय!! अरेरे, आ काळ! जीवो
हितनी वात सांभळतां पण