Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८३ : आत्मधर्म : १५ :
उलटा विरोध करे छे! शुं थाय? कोई कोईना भाव बीजो फेरवी शके छे!! संसार तो एम ने एम चाल्या ज
करवानो छे. जे जीवो सत्य समजे तेनी बलिहारी छे... तेना संसारनो एक बे भवमां अंत आवी जशे. बाकी
जगतमां तो संसार चाल्या ज करवानो छे... ने संसारमां रखडवानो योग्य परिणामवाळा जीवो पण रह्या ज
करवाना छे... जगतना बधाय जीवो सत्य समजीने मोक्ष पामी जाय–एम कदी बनवानुं नथी, माटे आ तो पोते
सत्य समजीने पोतानुं हित साधी लेवा जेवुं छे. अज्ञानीओ पोकार करे तो करो... पण तेथी कांई वस्तुनुं स्वरूप
तो फरी नहि जाय. वस्तुस्वरूप न समजतां जेओ विरोध करे छे तेमना उपर ज्ञानीने करुणा आवे छे.
जुओ, कुंदकुंदाचार्यदेव जेवा महावीतरागी संत अष्टप्राभृतमां कहे छे के वस्त्रनो एक ताणो पण परिग्रह
तरीके राखीने पोताने मुनिदशा मनावे तो ते जीव निगोदे जाय. आम कहेवामां आचार्य भगवानने कांई एवी
भावना नथी के अमारो विरोध करे छे माटे तेने निगोदमां मोकलवो, परंतु वस्तुस्थिति ज एवी छे के मिथ्यात्व
सेवनार जीव पोताना ऊंधा परिणामने लीधे निगोदमां जाय छे... एम बतावीने आचार्यदेव करुणाबुद्धिथी
जीवोने मिथ्यात्वथी छोडाववा मांगे छे... अरे जीव! मुनिदशानुं वास्तविक स्वरूप ओळख अने साची श्रद्धा कर,
के जेथी आ संसारना दुःखोथी तारो आत्मा छूटे ने मोक्षसुख पामे.
श्रीमद् राजचंद्रजी पण करुणापूर्वक आत्मसिद्धिमां कहे छे के––
‘कोई क्रियाजड थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई
माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोई.’
कोई अज्ञानी जीवो तो शरीरादि जडनी क्रियामां ज धर्म मानीने ‘क्रियाजड’ थई रह्या छे, ने बीजा कोई
अज्ञानीओ शुष्कज्ञानमां एटले के वस्तुस्वरूप समज्या वगर मात्र ज्ञाननी वातो करवामां ज मोक्षमार्ग मानी
रह्या छे, परंतु वास्तविक मोक्षमार्गने ओळखता नथी; एवा जीवोने जोईने करुणा आवे छे.
जुओ, आ ज्ञानीओनी करुणा! ऊंधी श्रद्धाना फळमां केवुं अपार दुःख छे ते ज्ञानीओ जाणे छे तेथी
जीवोने ऊंधी श्रद्धाना अनंतदुःखथी बचाववा ज्ञानीओ बेधडक पणे ते ऊंधी श्रद्धानो निषेध करे छे. शरीरनी
क्रियाथी धर्म थाय के रागथी धर्म थाय एवी मिथ्या श्रद्धानुं फळ घोर संसार छे, माटे जेओ दुःखथी छूटवा मांगता
होय तेओ एवी मिथ्यामान्यता छोडो ने आत्मानुं रागरहित–देहथी भिन्न वास्तविक ज्ञानानंद स्वरूप समजो,
एम ज्ञानीओनो उपदेश छे.
+ + +
आत्मा त्रण प्रकारना छे; जो के शक्तिरूप स्वभावथी तो बधा आत्मा सरखा छे पण अवस्थाभेदे त्रण
प्रकार पडे छे–बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा.
चैतन्यना आनंदने चूकीने बहारना विषयोमां जे आनंद माने छे ते बहिरात्मा छे;
बाह्य विषयोथी रहित अंतरमां चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदने जाणीने तेने जे साधे छे ते अंतरात्मा छे.
अने आत्मानो परिपूर्णआनंद जेमने प्रगटी गयो छे ते परमात्मा छे. ते परमात्मा परिपूर्ण ज्ञानसहित
छे; अनादिअनंत काळने जेम छे तेम पोताना दिव्यज्ञानमां प्रत्यक्ष जाणे छे. जेनो क्यांय छेडो नथी एवा अनंत
अलोकाकाशने पण प्रत्यक्षपणे परिपूर्ण जाणे छे एवुं ज दिव्यज्ञाननुं कोई अचिंत्य सामर्थ्य छे. ज्ञाने
अनादिअनंत काळने के अनंत आकाशने प्रत्यक्ष जाणी लीधुं माटे ज्ञानमां तेनो छेडो आवी गयो–एम कांई नथी;
जो छेडो आवी जाय तो अनादि–अनंतपणुं क्यां रह्युं? माटे ज्ञाने तो अनादिअनंतने अनादिअनंतरूपे ज जेम
छे तेम जाण्युं छे. –आ ज्ञाननो कोई अचिंत्य महिमा छे. अज्ञानीने अनादिअनंतकाळनी महानता भासे छे, पण
ज्ञानसामर्थ्यमां तेना करतां अनंतगणी महानता छे ते तेने भासती नथी, अने ज्ञानस्वभावनो महिमा
प्रतीतमां आव्या वगर आ वातनुं कोई रीते समाधान थाय तेम नथी. काळनुं अनादिअनंतपणुं तेने मोटुं लागे
छे पण ज्ञाननुं अनंतसामर्थ्य तेने मोटुं नथी लागतुं, एटले ज ‘अनादिअनंतने ज्ञान कई रीते जाणे? ’ एम
तेने शंका पडे छे, तेमां खरेखर तो ज्ञानसामर्थ्यनी ज शंका छे. काळना अनादिअनंतपणा करतां ज्ञानसामर्थ्य
मोटुं छे,