एक ज रहे छे, द्रव्यपणे कांई पोते अनेक थई जतो नथी एवी तेनी एकत्वशक्ति छे. अने द्रव्यपणे एक
होवा छतां अनेक पर्यायोपणे पण पोते ज थाय छे–एवी तेनी अनेकत्वशक्ति छे. आ रीते एकपणुं ने
अनेकपणुं बंने शक्तिओ आत्मामां एक साथे छे. तेमां ‘एकत्व’ ते द्रव्यार्थिकनयथी छे अने तेनी साथे
“अनेक पर्यायोमां व्यापक” एम कहीने पर्याय पण बतावी; तथा बीजा बोलमां ‘अनेकत्व’ कह्युं ते
पर्यायार्थिकनयनो विषय छे अने तेनी साथे “एक द्रव्यथी व्याप्य” एम कहीने द्रव्य पण साथे ज राख्युं
छे. द्रव्यनुं लक्ष छोडीने एकलुं अनेकपणुं माने तो ते यथार्थ नथी. ते ज प्रमाणे निर्मळ पर्यायो विनानुं
एकलुं द्रव्य माने तो ते पण यथार्थ नथी. द्रव्य अने निर्मळ पर्याय ए बंनेने व्यापक–व्याप्य तरीके साथे ने
साथे राखीने आचार्यदेवे अद्भुत वर्णन कर्युं छे.
न व्यापे पण पोतानी पर्यायमां व्यापे. अहीं निर्मळ पर्यायोनी ज वात छे. एक पछी एक पर्यायमां शुद्धता
वधती जाय छतां ते बधी पर्यायो आत्मामां ज अभेद थाय छे, अनेक पर्यायो थवाथी आत्मानी एकता
तूटती नथी. सम्यग्दर्शननी शरूआत वखते पण ते ज छे ने केवळज्ञान वखते पण ते ज छे; ए रीते अनेक
निर्मळ पर्यायपणे थवा छतां पोते चैतन्यस्वरूपे एक ज छे. ज्ञानपर्यायमां आत्मा, दर्शनमां आत्मा,
आनंदमां आत्मा, एम अनंत गुणोनी पर्यायमां रहेलो होवा छतां, ज्ञाननो आत्मा जुदा, दर्शननो आत्मा
जुदो ने आनंदनो आत्मा जुदो––एम कांई आत्मानुं भिन्नपणुं नथी, आत्मा तो एक ज छे. “जगतमां
बधा थईने एक ज आत्मा (अद्वैतब्रह्म) छे” ए वात जूठी छे, तेनी अहीं वात नथी. जगतमां तो
अनंतानंत जीवात्माओ भिन्न भिन्न छे, पण तेमांथी व्यक्तिदीठ एकेक आत्मा पोतपोताना अनंत
गुणपर्यायोमां एकपणे रह्यो छे, परथी तो भिन्नपणे रह्यो छे. परमां तारो आत्मा नथी माटे परनुं लक्ष
छोड; देहमां–वाणीमां–मनमां ‘आत्मा’ एवा शब्दमां–कर्ममां के रागमां क्यांय तारो आत्मा नथी माटे ते
बधायनुं लक्ष छोड; तारा अनेक गुण–पर्यायोमां तारो आत्मा रहेलो होवा छतां ते अनेकपणे खंडित थई
गयो नथी पण एकपणे ज रह्यो छे, माटे अनेकना भेदनुं पण लक्ष छोडीने, द्रव्यस्वभावनी एकतानुं
अवलंबन कर. ते एकताना अवलंबने अनेक निर्मळ पर्यायो थईने ते एकतामां ज भळी जशे.
तेमां ज आत्मा व्यापक छे. अहो! विकारी पर्यायमां पण आत्मा नथी रह्यो तो पछी शरीरादि जडमां तो
आत्मा क्यांथी होय? शरीरमां आत्मा नथी रह्यो–ए वात सांभळता अज्ञानी तो भडके छे के अरे! शुं
आत्मा आ शरीरमां नथी? तो आत्मा क्यां रह्यो हशे? शुं आकाशमां रह्यो हशे? ” –अरे भाई! धीरो
था, धीरो था. शरीर पण जड छे ने आकाश पण जड छे, –शुं आत्मा जडमां रहे? के जडथी भिन्न रहे?
आत्मा शरीरमां नथी ने आकाशमां पण नथी, आत्मा पोताना ज्ञान–आनंद वगेरे अनंत गुण–पर्यायोमां
ज छे. भाई! तारा गुण–पर्यायोथी बहार बीजे क्यांय तारो आत्मा नथी. जड शरीरादिमां आ चैतन्यमूर्ति
आत्मा कदी रह्यो ज नथी, तो पछी आत्मा ते शरीरादिनां काम करे ए वात क्यां रही? –ए तो गई
अज्ञानीनी भ्रमणामां! अज्ञानीने भ्रम थाय छे के अमे आ खावुं–पीवुं–बोलवुं बधुं करीए छीए ने! –पण
भाई! तुं एटले कोण? तुं जड के तुं आत्मा? आत्मा आत्मामां रहे के जडमां? खावुं–पीवुं–बोलवुं ते
क्रियाओ तो जड शरीरमां थाय छे, ते जडना स्वभावथी थाय छे, तारो स्वभाव तो ज्ञान छे, तुं तो तेनो
जाणनार ज छो. जडनी वात तो क्यांय गई, पण अहीं तो कहे छे के एकला रागादि विकारमां ज आत्मा
रहेलो छे एम अनुभवनार पण मिथ्याद्रष्टि ज छे.