Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४८३ :
आ चैतन्यगोळो भगवान आत्मा छे ते बहारना छोता जेवा आ जड शरीरमां नथी, अने अंदरनी राती छाल
जेवा रागादि विकारमां पण नथी, चैतन्यमूर्ति आत्मा तो ज्ञान ने आनंदरूपी पोताना स्वभावमां ज छे. एकली
राती छालने ज खाईने तेने श्रीफळनो स्वाद माने तो खरेखर तेणे श्रीफळने जाण्युं नथी, तेम एकला रागना
अनुभवने ज आत्मानो स्वाद जे माने तेणे खरेखर आनंदमूर्ति आत्माने जाण्यो ज नथी. रागमां–पुण्यमां
आत्मानो विस्तार नथी, रागथी तो आत्माना परिणमननो संकोच थाय छे. आत्मानो विकास अने विस्तार
तो पोतानी निर्मळ पर्यायमां ज छे. एकलुं द्रव्य पोताना अनंत गुणपर्यायोना विस्तारमां पहोंची वळे छतां
पोते एकपणुं छोडीने खंडित न थाय एवी आत्मानी शक्ति छे. आवी शक्तिवाळा आत्माने जाणवो ते
अपूर्वधर्म छे. आवा आत्मानी समजण वगर जे धर्म मनावे छे–रागथी धर्म मनावे छे–ते पोताना चैतन्यमूर्ति
आत्मानो अनादर करे छे, भगवानना मार्गनो अनादर करे छे, ने भवभ्रमणना मार्गने आदरी रह्यो छे.
कोई मारे के गाळ दे छतां क्रोध न करवो ते धर्म–एम सामान्य मंदकषायमां ज मूढ जीवो धर्म मानी ल्ये
छे, पण तेमां चैतन्यस्वरूप आत्माना अनादररूप अनंतक्रोध छे–तेनी तेओने खबर नथी. ‘अरे, मारा
अशुभकर्मनो उदय छे, तेमां कोई बीजानो वांक नथी’ एम एकला कर्मनी ओथे क्षमा राखे, तो ते पण खरेखर
क्षमा नथी; तेणे आत्माने याद न कर्यो पण कर्मने याद कर्युं–ते ज ऊंधी द्रष्टि छे. अहो, हुं तो चैतन्यस्वभाव छुं.
क्रोध मारा स्वभावमां छे ज नहि एवुं जेने सम्यग्भान छे तेने अनंतक्रोधनो नाश थई गयो छे, कदाचित् कोई
प्रत्ये तेने क्रोध थाय तो पण ते क्रोध अनंतो अल्प छे, अने अज्ञानी कदाच क्रोध न करे तोपण तेने ऊंधा
अभिप्रायमां ज अनंता क्रोधनुं जोर भर्युं छे. चैतन्यस्वरूप आत्माना अवलंबन विना धर्म थाय ज नहि, ने
दोष खरेखर टळे ज नहि.
शरीरमां के रागमां तो आत्मा नथी; निर्मळ पर्याय थई तेमां आत्मा व्यापक छे परंतु ते एक ज पर्याय
जेटलो आखो आत्मा नथी, आत्मामां तो एवी अनंत पर्यायोमां व्यापवानी ताकात छे. –आवा आत्मा उपर
धर्मीनी द्रष्टिनी मीट छे, आवा आत्माने श्रद्धामां लईने तेमां ज पर्यायने एकाग्र करी छे, ने ते ज धर्मीनो धर्म
छे. धर्मी एटले आत्मद्रव्य अने धर्म एटले तेनी निर्मळ पर्याय; धर्मीनो धर्म तेनाथी जुदो नथी, धर्म धर्मी साथे
एकमेक छे.
क्यां रहेवुं? –के दिल्हीमां; तेम अहीं पूछे छे के क्यां रहेवुं? तो धर्मी कहे छे के अमारी निर्मळ
पर्यायमां; अमारी निर्मळ पर्याय ते ज अमारुं पाटनगर छे. राजा ज्यां रहे तेने पाटनगर कहेवाय ने ते
नगर उपर कोई जातनो करनो बोजो न होय–एम अगाउना वखतमां हतुं, तेम आ चैतन्यराजा पोतानी
निर्मळ पर्यायरूप पाटनगरमां रहे छे, ने ते निर्मळ पर्याय उपर कोई जातनो कर एटले के विकार के कर्मनो
बोजो नथी. देशमां के देहमां तो आत्मा रह्यो ज नथी, तो पछी तेनी वात क्यां रही? स्वभावमांथी निर्मळ
पर्याय प्रगट करीने तेमां आत्मा रहे छे. सम्यग्दर्शनज्ञान–चारित्रनी निर्मळ पर्याय थई तेमां आत्मा पोते
व्याप्यो छे. कोई रागनो–व्यवहारनो विस्तार थईने सम्यग्दर्शन थयुं एम नथी पण आत्मा पोते विस्ताररूप
थईने सम्यग्दर्शनमां फेलायो छे. आत्मानी निर्मळ पर्यायोमां रागादि नथी रहेता, आत्मानी निर्मळपर्यायमां
आत्मा पोते ज रहे छे, आवा आत्मा उपर धर्मीनी द्रष्टि छे. एकली पर्याय उपर पण तेनी द्रष्टि नथी, परंतु
पर्याय जेमांथी आवी एवा शुद्ध द्रव्य उपर तेनी द्रष्टि छे, एटले ते द्रष्टि अने द्रव्य बंने एकाकार थई गया
छे. सम्यग्दर्शननी शरूआतथी मांडीने सिद्धदशा सुधीनी बधी पर्यायोमां सळंगपणे एक आत्मा रहेलो छे, ते
एकना आश्रये ज अनेक निर्मळ पर्यायो थती जाय छे. बस! निर्मळ पर्यायने आ एकनो ज आश्रय छे, ए
सिवाय बहारमां कोई बीजानो–रागनो, निमित्तोनो, के देव–शास्त्र–गुरुनो आश्रय खरेखर नथी. शुद्ध
चैतन्यद्रव्यना आश्रये ज मोक्षमार्ग प्रगटे छे, टके छे ने वधे छे ए सिवाय व्यवहार–राग के निमित्तोना
आश्रये मोक्षमार्ग प्रगटतो नथी, टकतो नथी ने वधतो नथी. अरे! मोक्षमार्गनी जे पर्याय छे ते पर्यायना
आश्रये पण मोक्षमार्ग नथी, शुद्धद्रव्यना ज आश्रये मोक्षमार्ग छे. आत्मा द्रव्यस्वरूपे एकपणे रहेतो होवा
छतां, अनेक निर्मळपर्यायोरूप अनेकपणे पण पोते ज थाय छे. एकतारूप रहेवुं तेमज अनेकतारूपे थवुं–ए
बंने स्वभाव एक आत्मामां रहेला छे. सर्वथा एकरूप ज रहे तो एक