Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८३ ‘आत्मधर्म’ : ९ :
परिणमी जाय–एवो ज तेनो स्वभाव छे. निर्मळतारूपे परिणमी जाय ने विकारनो पोतामां अभाव राखे एवी
आत्मानी अचिंत्य ताकात छे. अहो! पोताना असली स्वभावनो महिमा जीवने कदी आव्यो नथी.
सम्यग्दर्शन ते श्रद्धागुणनी पर्याय छे. ते पर्याय जो परने लीधे के विकल्पने लीधे माने तो ते वखते
श्रद्धागुणनी पर्याय विद्यमान न रही!–एटले त्यां खरेखर सम्यग्दर्शन ज न रह्युं, मिथ्यात्व थई गयुं; अने
मिथ्यात्व ते खरेखर श्रद्धागुणनी पर्याय गणता नथी.
स्वद्रव्यनो आश्रय करीने अने परद्रव्यनो आश्रय छोडीने, निर्मळ पर्यायना भावरूप अने विकारना
अभावरूप परिणमे एवो आत्मानो अनेकान्त स्वभाव छे, अने ते ज धर्म छे.
स्वनो आश्रय छोडीने परना आश्रये ज जे एकला विभावरूप परिणमे छे, ने विभावना अभावरूप
नथी परिणमतो, तेने स्व–परनी एकताबुद्धिरूप एकांत छे–मिथ्यात्व छे.
अज्ञानी कहे छे के आत्मामां कर्मोनुं जोर छे, पण अहीं तो आचार्यदेव कहे छे के आत्मामां
अभावशक्तिनुं एवुं जोर छे के कर्मने पोतामां आववा ज नथी देतुं. भावशक्तिने लीधे वर्तमान निर्मळपर्याय
वर्ते छे, ने ते ज वखते अभावशक्तिने लीधे ते पर्यायमां कर्मनो–विकारनो तेमज पूर्व–पछीनी पर्यायोनो
अभाव वर्ते छे. जो भावशक्ति न होय तो निर्मळ पर्यायरूप भवन–परिणमन न थई शके; अने जो
अभावशक्ति न होय तो पूर्वनी विकारी पर्यायना अभावरूप परिणमन न थई शके, माटे ए बंने शक्तिओ
आत्मामां एक साथे परिणमे छे. आवा आत्मानी ओळखाण करीने तेनुं अवलंबन करतां अनुक्रमे सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळ परिणमन थाय छे अने विभाव परिणामनो अभाव थाय छे.–आमां ज मोक्षनो
पुरुषार्थ छे.
चैतन्यस्वभावनी सन्मुख थतां ज मिथ्यात्वना अभावरूप ने सम्यक्त्वना सद्भावरूप परिणमन थाय
छे. जे पर्याय अंतर्मुख थईने स्वभाव सन्मुख थई ते पर्यायमां स्वभावनुं परिणमन थया विना रहे नहीं.
स्वभाव उपर द्रष्टि जतां स्वभावनी निर्मळताना भावरूप अने विकारना अभावरूप जे पर्याय थई ते
पर्यायनी विद्यमानतामां समकितीनो आत्मा वर्ते छे, पण रागादिमां ते खरेखर वर्ततो नथी, तेना तो अभावमां
वर्ते छे.
जुओ, आ समकितीनी ओळखाण! समकितीनो आत्मा क्यां रह्यो छे? स्वर्ग के नरकादिना संयोगमां
समकितीनो आत्मा नथी, रागमां पण समकितीनो आत्मा नथी, आत्माना आश्रये जे निर्मळ पर्याय विद्यमान
वर्ते छे तेमां ज खरेखर समकितीनो आत्मा छे. आ सिवाय रागथी के संयोगथी ओळखवा जाय तो ते रीते
समकितीना आत्मानी ओळखाण खरी रीते थती नथी.
अहो! आत्मानो स्वभाव तो विकारना अभावरूप छे; ते स्वभावना आश्रये तो विकारनो अभाव थतो
जाय छे, तेने बदले विकारने राखवा मांगे तो तेने आत्माना स्वभावनी प्रतीत नथी.
हे जीव! तारो स्वभाव विभावना अभाववाळो छे.
तारु ज्ञान अज्ञानना अभाववाळुं छे. तारी श्रद्धा विपरीतताना अभाववाळी छे.
तारो आनंद आकुळताना अभाववाळो छे. तारुं चारित्र कषायना अभाववाळुं छे.
तारी सर्वज्ञता आवरणना अभाववाळी छे. तारी स्वच्छता मलिनताना अभाववाळी छे.
तारुं जीवन भाव–मरणना अभाववाळुं छे. तारुं सुख दुःखना अभाववाळुं छे.
तारी प्रभुता दीनताना (पामरताना) अभाववाळी छे.
–ए प्रमाणे तारी बधी शक्तिओ विभावना अभाववाळी छे. आवा स्वभावनो स्वीकार थतां पर्यायमां
पण तेवुं परिणमन थई जाय छे.–आ ज धर्मनी रीत छे. स्वभावनी शुद्धताने प्रतीतमां लईने तेना आश्रये
परिणमन कर्या सिवाय बीजो कोई धर्मनो उपाय जगतमां छे ज नहीं.
पहेलांं विकल्प होय छे ते विकल्पने लीधे कांई