Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : ‘आत्मधर्म’ २४८३ : आसो :
ज्यां निर्मळ स्वभावनी विद्यमानता भासी त्यां ते स्वभावना आश्रये थयेली विद्यमान पर्याय पण निर्मळ थई
छे. जो एम न बने तो स्वभावनो ज अभाव थई जाय. आवा पोताना स्वभावने समजवानो अभ्यास करवो
ते पण धर्म माटेनो प्रयत्न छे.
जो अंतरमां प्रेम करे तो तो चैतन्यप्रभु नजीक ज बिराजे छे; अंतरनी प्रीतिना अभावे चैतन्यप्रभु दूर
लागे छे, पण जो गुरुगमे चैतन्यनुं स्वरूप लक्षमां लईने तेमां प्रीति जोडे तो तो प्रभु पोतानी पासे ज छे–पोते
ज चिदानंद प्रभु छे. जेथी प्रीति परमां छे तेवी प्रीति जो आत्मामां जोडे तो आत्मानो अनुभव थया विना रहे
नहीं.
अशुद्धतानी द्रष्टिमां आत्मानुं विद्यमानपणुं देखातुं नथी. जो स्वभावने देखे तो पर्यायमां फेर पड्या
विना रहे नहि. जेम पैसानी प्रीतिवाळो पचीस लाख रूपीया कमाय ने तेनी होंसमां फेर न पडे एम बने नहि,
तेम अंर्त लक्षे चैतन्यस्वभावनो लाभ थतां पर्यायनी होंसमां फेर न पडे तेम बने नहि, अर्थात् पर्यायमां
स्वभावनी निःशंकता अने ते तरफनो उत्साह आव्या विना रहे नहि. जो निर्मळअवस्था न होय तो त्यां वस्तु
ज विद्यमान नथी एटले के अज्ञानीने वस्तुस्वभावनो निर्णय के निःशंकता नथी. चैतन्यस्वभावमां अंदर
ऊतरीने ज्यां तेनो निर्णय कर्यो त्यां ते वखतनी विद्यमानता पर्याय निर्मळ थई छे. निर्मळ पर्यायनी
विद्यमानता वगर स्वभावनो निर्णय कर्यो कोणो? कांई मलिनतामां एवी ताकात नथी के स्वभावनो निर्णय
करी शके? देह ते हुं, रागनुं वेदन ते हुं–एम स्वीकारनारी पर्यायमां स्वभावनो स्वीकार नथी, एटले ते पर्याय
पोते स्वभाव तरफ वळेली नथी; ज्यां स्वभाव तरफ वळनारी निर्मळ पर्याय विद्यमान न होय त्यां
शुद्धस्वभावना अस्तित्वनो निर्णय पण होय नहि. आ रीते, शुद्धस्वभावना अस्तित्वनो निर्णय अने शुद्ध
पर्यायरूप परिणमन–ए बंने एक साथे ज छे. अने ए रीते ज्ञानस्वभावी आत्मा विद्यमान अवस्थावाळो छे.
“विद्यमान अवस्थावाळो छे.” कोण? के ज्ञानस्वभावी आत्मा. आ रीते विद्यमान अवस्थावाळापणुं
नक्की करनारनी द्रष्टि ज्ञानस्वभावी आत्मा उपर जाय छे ने ते स्वभावनी द्रष्टिथी तेनी विद्यमान अवस्था
निर्मळ ज वर्ते छे. आत्मानी हयातीनो निर्णय करे ने निर्मळ पर्याय तेमां न आवे एम बने नहि. शुद्ध द्रव्य ने
शुद्ध पर्याय बंने थईने अभेदपणे आत्मानी हयाती छे.
आत्मानी पर्यायनुं विद्यमानपणुं निमित्तने कारणे तो नथी, पूर्व अवस्थाने कारणे पण वर्तमान पर्यायनुं
विद्यमानपणुं नथी, तेमज एक समये जे विकार छे तेने लीधे पण निर्मळतानुं विद्यमानपणुं नथी, पण चैतन्य
द्रव्यमां एक भावशक्ति छे, तेथी तेना ज आधारे निर्मळ पर्यायनी विद्यमानता छे. आत्मानी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप पर्यायनुं विद्यमानपणुं कोई परना आधारे छे–एम नथी, पण आत्मानी पोतानी भावशक्तिथी ते
अवस्थानुं विद्यमानपणुं छे. आत्मानो जे त्रिकाळ टकतो भाव ते ध्रुव उपादान छे अने अवस्थानुं विद्यमानपणुं
ते क्षणिक उपादान छे.
छठ्ठा सातमा गुणस्थाने मुनिदशा विद्यमान वर्ते छे; ते मुनिदशा शुं शरीरनी दिगंबर दशाना आधारे
छे?–के ना; पंच महाव्रतना विकल्पना आधारे छे?–ना; पूर्वनी पर्यायना आधारे छे?–ना; एक गुणना भेदना
आधारे छे?–ना; अनंत शक्तिस्वरूप अभेद आत्माना आधारे ज ते मुनिदशा विद्यमान वर्ते छे. आ रीते,
अभेद आत्मानी सामे जोईने ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे निर्मळ पर्यायनी विद्यमानतानो निर्णय थाय
छे; अने त्यारे ज ज्ञानीनी, मुनिनी के सर्वज्ञनी यथार्थ ओळखाण थाय छे.
आत्मा पोते निर्मळ पर्यायपणे विद्यमान वर्ते–एवी तेनी भावशक्ति छे; पण ते भावशक्तिनुं कार्य एवुं
नथी के विकारने पोतामां वर्तावे. विकार तो विपरीत परिणमन छे तेने शक्तिनुं कार्य कहेवाय नहिं. कारण जेवुं
कार्य होय, एटले के निर्मळ कार्य होय तेने ज शक्तिनुं कार्य कहेवाय. आत्मानी एकेय शक्ति एवी नथी के
विकारनुं कारण थाय, माटे विकार ते खरेखर आत्मानी शक्तिनुं परिणमन नथी. एटले एकला विकार उपर
जेनी द्रष्टि छे तेना परिणमनमां आत्मानो स्वभाव आव्यो ज नथी. जो आत्माना स्वभावने द्रष्टिमां ल्ये तो
आत्मा पोते निर्मळ पर्यायरूपे