शकतो नथी; अने स्वभावशक्तिनी प्रतीत जे करे छे तेने पर्यायमां एकलो विकार ज नथी रहेतो, तेने निर्मळता
वर्ते छे, ने तेमां विकारनो अभाव थतो जाय छे. स्वभावमां वळतां निर्मळ पर्याय थई, तेमांथी विकारने टाळवो
नथी पडतो, पण ते पर्यायमां विकारनो अभाव ज वर्ते छे. जुओ, आ विकारनो अभाव करवानी रीत! कई
रीत? के जे पर्याय शुद्धस्वभाव साथे एकता करीने निर्मळरूपे परिणमी छे ते पर्याय पोते ज विकारना
अभावरूप छे. निर्मळपर्यायनो ‘भाव’ने तेमां विकारनो ‘अभाव’ एवी आत्मानी भावशक्ति तथा
अभावशक्ति छे. ज्ञानस्वभावी आत्माना परिणमनमां आवी शक्तिओ परिणमी ज रही छे, एम बतावीने
अहीं शुद्ध आत्मा लक्षित कराववो छे.
परिणमन छे.
जे पर्याये अंतर्मुख थईने चिदानंदथी भरपूर भगवानने स्वीकार्यो ते पर्यायमां निर्मळता प्रगटीने एवी अपूर्व
हूंफ आवी गई छे के बस! हुं तो आवा शुद्ध स्वरूप ज छुं, विकारस्वरूप हुं नथी; आवी हूंफना जोरे तेने निर्मळता
ज वधती जाय छे, ने विकार टळतो जाय छे, आनुं नाम धर्म अने आराधकदशा छे. जेने आवी हूंफ (–निःशंकता)
नथी तेने धर्मनो अंश पण नथी.
पर्यायनी संधि करी –ते धर्मनो खरो वेपारी छे आवा आत्मानो निर्णय पोते करे नहि अने “अमारा भगवाने तथा
अमारा गुरुए कह्युं ते साचुं छे पण अमने आत्मा ओळखातो नथी.” –एम कहे,–तो तेणे खरेखर भगवाननो के
गुरुनो पण निर्णय कर्यो नथी; केमके भगवाने अने गुरुए शुं कह्युं ते समज्या वगर तेमनी ओळखाण क्यांथी करी?
माटे स्वाश्रयथी वस्तुस्वरूपनो निर्णय कर्या वगर धर्मना पंथमां एक पगलुंय चाले तेम नथी.
अवस्था वगर स्वभावनो स्वीकार यथार्थपणे थाय ज नहि. आत्मानो स्वभाव ज एवो छे के तेनो स्वीकार करतां
ते पोते निर्मळ अवस्थारूपे परिणमी जाय छे. जो स्वभाव परिणमीने अवस्थामां कांईक न आवे तो ते अवस्थाए
स्वभावनो स्वीकार कर्यो ज नथी एकला द्रव्यनी शुद्धता कहे ने पर्यायनी शुद्धता जराय न भासे तो ते पर्याय
शुद्धद्रव्य तरफ वळी ज नथी एटले शुद्धद्रव्यनो पण खरेखर स्वीकार कर्यो नथी. आत्मानो शुद्धस्वभाव स्वीकारतां ते
स्वभाव उल्लसीने पर्यायमां आवे छे,–अर्थात् पर्याय पण स्वभावमां अभेद थईने शुद्धरूप परिणमे छे.
ज अवस्थानुं विद्यमानपणुं छे. स्वभावनी प्रतीत विना अज्ञानीने अनादिथी विकार ज विद्यमान छे, स्वभावनुं
विद्यमानपणुं तेने भासतुं नथी.