आत्मानी अवस्थामां परनो तो अभाव, ने तेनी वर्तमान अवस्थामां बीजी अवस्थानो पण अभाव
कर्मनो तो अभाव छे, तो ते तने शुं करे? तारामां तारी पर्यायना भावने देख, ने कर्मना अभावने देख.
कर्मनो तारी पर्यायमां भाव छे के अभाव? तारी पर्यायमां तो तेनो अभाव छे. ए उपरांत अहीं तो कहे छे के
पूर्वनी पर्यायनो पण वर्तमानमां अभाव छे; माटे, “अरेरे! पूर्वे बहु अपराध कर्या हवे आत्मानो केम उद्धार
थाय?”–एवी हताशबुद्धि छोड तारी वर्तमान पर्यायने स्वभावमां वाळे तो तेमां कंई पूर्वना दोष नथी
आवता. अज्ञानीने पण पोतानी ज वर्तमान ऊंधाईथी मलिनता छे, कांई पूर्वनी मलिनता तेने वर्तमानमां
नथी आवती, पूर्वनी पर्यायनो तो अभाव थई गयो छे. अहो, समये समये वर्तती वर्तमान पर्यायनो ‘भाव’
अने तेमां बीजी पर्यायोनो ‘अभाव’–एमां तो पर्यायेपर्यायनी स्वतंत्रता बतावी छे.
वगेरे प्रकार होय ज. तेम आत्मवस्तुमां पण पोताना आकार अने प्रकाररूप भाव वर्ते ज छे. निमित्त आवे
तो पर्याय थाय–एवी जेनी मान्यता छे तेणे आत्मानी भावशक्तिने मानी नथी.
तें कोनी सामे जोईने स्वीकार्युं? जो आत्मा सामे जोईने ते स्वीकार्युं होय तो पर्यायमां मिथ्यात्व रहे ज नहि.
अने परनी सामे जोईने ज जो तुं कहेतो हो के ‘आत्माना भाव पोताथी छे’–तो ए रीते परनी सामे जोईने
आत्माना स्वभावनो खरो स्वीकार थई शके ज नहि. जो आत्माना स्वभावने स्वीकारे तो ते स्वभावने
अनुसरीने निर्मळ अवस्थानुं विद्यमानपणुं होवुं जोईए. जो पर्याय एकला परने ज अनुसरे तो तेणे
स्वभावने कई रीते स्वीकार्यो? माटे जो निर्मळ अवस्थानुं विद्यमानपणुं न होय तो तेणे विद्यमान
अवस्थावाळा आत्मस्वभाव”ने प्रतीतमां लीधो ज नथी. जेम द्रव्यनी सन्मुख थया वगर क्रमबद्ध पर्यायनी के
सर्वज्ञनी प्रतीत खरेखर थई शकती ज नथी तेम द्रव्यनी सन्मुख थया वगर तेनी कोई पण शक्तिनी यथार्थ
प्रतीत थई शकती नथी.–अखंड स्वभावनी सन्मुखताथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे.
वेदनमां ते आवती नथी. जेम मेरुपर्वत नीचे शाश्वत सोनु छे, पण ते शुं कामनुं? (ते नीकळीने कदी
उपयोगमां नथी आवतुं.) तेम सर्वज्ञत्व वगेरे शक्तिओ बधा आत्मामां होवा छतां ज्यां सुधी ते निर्मळ
परिणमनमां न आवे त्यां सुधी अज्ञानीने तो ते मेरुनी नीचेना सोना समान ज छे. पोते पोतानी शक्तिनी
सन्मुख थईने तेनी प्रतीत नथी करतो एटले तेने तो ते अभाव समान ज छे. पोतानी स्वभावशक्तिनो
स्वीकार करतां पर्यायमां तेनुं निर्मळ