Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १० : ‘आत्मधर्म’ २४८३ : आसो :
मिथ्यात्वना अभावरूप ने सम्यक्त्वना भावरूप परिणमन थतुं नथी; पण शुद्ध आत्माना ज आश्रये
मिथ्यात्वना अभावरूप ने सम्यक्त्वना भावरूप परिणमन थाय छे. निर्मळ पर्यायनी एकता पोताना
चैतन्यप्रभु साथे छे. अंतर्मुख थईने श्रद्धा–ज्ञान–आनंदनी जे परिणति पोताना चैतन्य–पियु साथे एकता करे ते
सम्यक् परिणति छे; अने जे परिणति पोताना चैतन्य–पियु साथे एकता न करतां, परमां ने विकारमां लाभ
मानीने तेनी साथे एकता करे ते परिणति दुराचारिणी छे, तेने खरेखर चैतन्यप्रभुनी परिणति कहेता नथी.
वर्तमान पर्याय अंतर्मुख थईने त्रिकाळी द्रव्य साथे एकता करे तेनुं नाम अनेकान्त छे. अने पर साथे एकता
करे तो त्यां द्रव्य शुद्ध ने पर्याय अशुद्ध–एटले द्रव्य–पर्यायनी एकतारूप अनेकान्त न थयुं पण एकांत थयुं. अहीं
आचार्यदेव अनंतशक्तिवाळा आत्मस्वभावनी साथे एकता करावीने अनेकान्त करावे छे. साधकने पर्यायमां
अल्प राग होवा छतां, शुद्ध स्वभाव साथे एकतानी द्रष्टिमां रागनो अभाव छे. पहेलांं आवा निर्मळ
स्वभावनुं लक्ष करे तो ते लक्षना दोरे–दोरे निर्मळ परिणमन थाय.
अहो, आत्मा केवो छे? के पोतानी शुद्ध पर्यायनी विद्यमानता सहित छे. शुद्ध पर्याय विना द्रव्यनी सिद्धि
थाय नहि. आ चैतन्यद्रव्य ईच्छा वगरनुं होय, राग वगरनुं होय, संग वगरनुं होय, कर्म अने शरीर वगरनुं
होय, पण निर्मळ अवस्थानी विद्यमानता विनानुं न होय.
प्रश्न:– अज्ञानीने आत्मा तो छे पण निर्मळ अवस्था नथी!
उत्तर:– अहीं पोताना आत्मानो निर्णय करवानी वात मुख्य छे. अज्ञानीने पोताना आत्माना
अस्तित्वनो निर्णय खरेखर छे ज नहि, एटले तेनी प्रतीतिमां तो द्रव्यनी हयाती नथी, तेने तो रागनी ज
हयाती छे. मारुं शुद्धद्रव्य छे पण निर्मळपर्याय नथी–एम कहेनारने खरेखर शुद्धद्रव्यनो पण निर्णय थयो ज
नथी. शुद्ध द्रव्यनो निर्णय थयो होय त्यां शुद्ध पर्याय होय ज.
आवी आत्मानी भावशक्ति छे. आ भावशक्ति आत्मानुं रागादिथी ने परथी भिन्नपणुं तथा वर्तमान
निर्मळ पर्याय साथे एकपणुं बतावे छे अने वर्तमान द्रव्य साथे अभेद थयेली निर्मळ पर्याय सिवाय बीजी
पर्यायो तथा रागादि अविद्यमान छे–एम अभावशक्ति बतावे छे, ज्ञानस्वभावने लक्षमां लईने परिणमन
करतां आवी भावशक्ति ने अभावशक्ति पण निर्मळपणे परिणमे छे. ए रीते ज्ञानस्वभावी आत्मामां एक
साथे अनेक शक्तिओनुं परिणमन होवाथी ते स्वयमेव अनेकान्तस्वरूप छे. आवा अनेकान्तमूर्ति भगवान
आत्माने ओळखवो ते अपूर्व धर्म छे.
आत्माना शुद्धस्वभावमां विकारनो अभाव छे, ने ते स्वभावमां एकाग्र थयेली निर्मळ पर्यायमां पण
विकारनो अभाव छे, एवी अभावशक्ति छे; एटले “विकारनो अभाव करु” एवुं रहेतुं नथी केमके निर्मळपणे
वर्तती पर्याय पोते विकारना अभावस्वरूप छे. जेम के–सम्यक्त्व पर्याय थई ते पोते मिथ्यात्वना अभावस्वरूप
ज छे एटले ‘मिथ्यात्वनो अभाव करुं’ एवुं ते पर्यायमां रहेतुं नथी. मिथ्यात्वनो अभाव करुं एवा लक्षमां
अटके त्यां सुधी मिथ्यात्वनो अभाव थतो नथी, पण शुद्धचैतन्यस्वरूपनी द्रष्टिथी ज्यां सम्यक्त्वरूपे परिणम्यो
त्यां मिथ्यात्वनो अभाव ज वर्ते छे. आ रीते निर्मळताना भावमां विकारनो अभाव ज छे, एवो आत्मानो
स्वभाव छे. शुद्धस्वभावमां विकार नथी माटे ते स्वभावमां अभेद थयेली पर्यायमां पण विकार होतो नथी. जो
स्वभावना आश्रये पण विकार थाय तो तो ते विकार स्वभाव ज थई जाय, ने ते टळीने मोक्ष थई शके ज नहि.
परंतु स्वभावमां विकार नथी एटले ते स्वभावना आश्रये विकारनो अभाव थईने मोक्षदशा थई जाय छे.
आम न्यायथी आत्माना शुद्धस्वभावनो निर्णय करीने अंर्तअनुभवथी तेनी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे.
अने ते सम्यग्दर्शनना अभिप्रायमां शुद्ध आत्मा सिवाय समस्त परभावोनो त्याग ज वर्ते छे.
जेम मोचीना कोथळा खोलतां तेमांथी तो दुर्गंधी चामडाना कटका नीकळे; पण चक्रवर्तीना करंडिया
खोलतां तेमांथी तो रत्न–मणीना हार नीकळे, तेम आ शरीर तो गंधाता चामडा जेवुं छे, तेनी क्रियामांथी कांई
सम्यग्दर्शनादि रत्नो न नीकळे, शरीरना