अभाव थया विना रहे नहि. पर्यायबुद्धिथी ज आत्मा विकारी भासे छे, स्वभावबुद्धिथी जोतां आत्माना द्रव्य–
गुण–पर्याय त्रणे विकारथी शून्य छे. संसार तेनामां छे ज नहि. संसार कोनो? के जे पोतानो माने तेनो; एटले
के विकारमां जेनी बुद्धि छे, तेने ज संसार छे. स्वभावनी बुद्धिवाळा साधक तो कहे छे के मारामां संसार छे ज
नहि–आवा शुद्धात्मानी द्रष्टि करवी ते ज संसारथी छूटीने सिद्ध थवानो उपाय छे.
आत्मस्वभावमां अभाव छे, परंतु अभावशक्ति पोते कांई आत्मामां अभावरूप नथी, अभावशक्ति पोते तो
आत्माना स्वभावरूप छे. परना अभावरूप भाव ते पण आत्मानो स्वभाव छे.
भाव थाय छे.–साधकने पोताना आवा आत्मस्वभावनी प्रतीत छे, केवळज्ञाननी पण प्रतीत छे, विकारना
अभावनी पण प्रतीत छे, तेने वर्तमान निर्मळता वर्ते छे ने अल्पकाळमां विकारनो सर्वथा अभाव थईने
झळहळतुं केवळज्ञान खीली जवानुं छे.
सभामां हाजर होवा छतां, जे श्रोतानो उपयोग श्रवणमां नथी जोडातो ने बीजे
आत्मानो उपयोग तो बीजे भमे छे, तेथी ते हाजर छतां गेरहाजर छे.
झोलां खाय तो तेमां श्रुतज्ञाननो अविनय थाय ने तेने श्रुतज्ञान समजाय नहि. ज्ञान समजवा
माटे तेनुं घणुं बहुमान अने विनय जोईए; श्रवण करतां, “अहो! आ तो मारा अपूर्व हितनी
वात छे”–एम अंतरमां उत्साह आववो जोईए.