Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८३ ‘आत्मधर्म’ : १३ :
आठ अंगथी झगझगतो
सम्यकत्वरूप सय
[समकितीना आठ अंगनुं अद्भुत वर्णन]
(समयसार गा. २२९ थी २३६ उपरना प्रवचनोमांथी : वीर सं. २४८३ जेठ)

• स्वभाव सन्मुख द्रष्टि थतां, निःशंकतादि आठ गुणोथी झळहळतो जे सम्यकत्वरूपी सूरज ऊग्यो तेनो
प्रताप आठे कर्मोने भस्म करी नांखे छे. • जीवने अंतरमां एम थवुं जोईए के अरे, मारुं शुं थशे? मारुं
हित केम थाय? सम्यग्दर्शन विना अनादि संसारमां रखडतां बहारमां क्यांय मने शरण न मळ्‌युं, माटे हवे
अंतरमां मारुं शरण शोधुं. • ज्ञानी कहे छे के भाई! अंतरमां तारो आत्मा ज्ञायक स्वभावमय छे ते ज
तने शरणरूप छे; ज्ञान–आनंदथी भरेला चैतन्यनिधान जेणे पोताना अंतरमां देख्या तेने परनी आकांक्षा केम
होय? • अहो, आत्मानो स्वभाव तो रत्नत्रयमय पवित्र छे, अने आ मलिनता तो शरीरनो स्वभाव छे.
धर्मी जाणे छे के मारा ज्ञायकभावमां मोह ज नथी, तो मूंझवण केवी? तेथी ते धर्मात्मा पोताना स्वभावना
पंथमां मूंझाता नथी. • अंतद्रष्टिवडे धर्मात्माए रत्नत्रय गुणोने प्रसिद्ध करीने दोषोनुं उपगूहन करी नांख्युं
छे. धर्मीने अंतरमां सिद्धसमान पोताना शुद्धस्वभाव उपर ज द्रष्टि छे ने तेना प्रत्ये ज भक्ति छे. • पोताना
आत्माने मोक्षमार्गमां द्रढपणे स्थिर करवो ते ज साचुं स्थितिकरण छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने
पोताना आत्मामां अभेदपणे देखतो होवाथी समकितीने ते रत्नत्रय प्रत्ये परम वात्सल्य होय छे, रत्नत्रयरूप
मोक्षमार्ग प्रत्ये तेने परम प्रीति–गाढ स्नेह होय छे चैतन्यविद्यारूपी रथमां आ रूढ करीने धर्मी जीव पोताना
आत्माने ज्ञानमार्गमां परिणमावे छे, ए रीते ते जिनेश्वरदेवना ज्ञानमार्गनी प्रभावना करनार छे. • अहो!
आवो वीतरागी जैनमार्ग! ते लोकमां प्रसिद्ध थाय ने लोको तेनो महिमा जाणे...एवो भाव पण धर्मात्माने
आवे छे.
• सम्यग्द्रष्टि, निःशंकता आदि आठ अंगोथी परिपूर्ण एवा सम्यग्दर्शनरूपी सुदर्शनचक्र वडे
समस्त कर्मोने हणीने मोक्षने साधे छे.