• स्वभाव सन्मुख द्रष्टि थतां, निःशंकतादि आठ गुणोथी झळहळतो जे सम्यकत्वरूपी सूरज ऊग्यो तेनो
अंतरमां मारुं शरण शोधुं. • ज्ञानी कहे छे के भाई! अंतरमां तारो आत्मा ज्ञायक स्वभावमय छे ते ज
तने शरणरूप छे; ज्ञान–आनंदथी भरेला चैतन्यनिधान जेणे पोताना अंतरमां देख्या तेने परनी आकांक्षा केम
होय? • अहो, आत्मानो स्वभाव तो रत्नत्रयमय पवित्र छे, अने आ मलिनता तो शरीरनो स्वभाव छे.
धर्मी जाणे छे के मारा ज्ञायकभावमां मोह ज नथी, तो मूंझवण केवी? तेथी ते धर्मात्मा पोताना स्वभावना
पंथमां मूंझाता नथी. • अंतद्रष्टिवडे धर्मात्माए रत्नत्रय गुणोने प्रसिद्ध करीने दोषोनुं उपगूहन करी नांख्युं
छे. धर्मीने अंतरमां सिद्धसमान पोताना शुद्धस्वभाव उपर ज द्रष्टि छे ने तेना प्रत्ये ज भक्ति छे. • पोताना
आत्माने मोक्षमार्गमां द्रढपणे स्थिर करवो ते ज साचुं स्थितिकरण छे.
मोक्षमार्ग प्रत्ये तेने परम प्रीति–गाढ स्नेह होय छे चैतन्यविद्यारूपी रथमां आ रूढ करीने धर्मी जीव पोताना
आत्माने ज्ञानमार्गमां परिणमावे छे, ए रीते ते जिनेश्वरदेवना ज्ञानमार्गनी प्रभावना करनार छे. • अहो!
आवो वीतरागी जैनमार्ग! ते लोकमां प्रसिद्ध थाय ने लोको तेनो महिमा जाणे...एवो भाव पण धर्मात्माने
आवे छे.