ज्ञानना अनुभवमां रागादि विकारने जरा पण भेळवता नथी. निःशंकपणे ज्ञानस्वरूपनो अनुभव समस्त
कर्मोने हणी नांखे छे.
छे, ने नवा कर्मोनुं जरापण बंधन थतुं नथी–आ रीते धर्मीने नियमथी निर्जरा थाय छे. ज्ञानस्वरूपी आत्मा
अबंधस्वभावी छे, तेनी सन्मुख ज्यां द्रष्टि थई त्यां ज्ञानीने बंधन थतुं नथी.
स्थितिकरण, वात्सल्य अने प्रभावना–ए आठ अंगरूपी किरणोथी झगझगतो जे सम्यकत्वरूपी सूर्य ऊग्यो तेना
प्रतापवडे सम्यग्द्रष्टि समस्त कर्मोने भस्म करीने अल्पकाळमां ज सिद्धपदने पामे छे. पूर्व कर्मनो उदय वर्ततो
जाय छे. उदय छे माटे बंध थाय–ए वात क्यांय ऊडी गई; उदय वखते चिदानंद स्वभाव तरफनी द्रष्टिना जोरे
आत्मा ते उदयने खेरवी ज नांखे छे, एटले ते उदय तेने बंधनुं कारण थया विना निर्जरी ज जाय छे.
सम्यक्त्वरूपी सूर्यनो उदय कर्मना उदयने भस्म करी नांखे छे. ज्यां मिथ्यात्वना बंधनने ऊडाडी दीधुं त्यां
अस्थिरताना अल्पबंधननी शी गणतरी?–ते पण क्रमे क्रमे टळतुं जाय छे. आ रीते ज्ञानीने स्वसन्मुख–
परिणतिने लीधे कर्मनी निर्जरा ज थाय छे, ने अल्पकाळमां सर्वकर्मनो नाश करीने ते सिद्धपदने पामे छे.–आवो
सम्यग्दर्शननो महिमा छे.
आठ अंगनुं आठ गाथाओ द्वारा आचार्यदेव अद्भुत वर्णन करे छे.
चिन्मूर्ति ते शंकारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २२९
धर्मीने बंधननी शंका थती नथी. आत्माना स्वभावमां बंधननी शंका के भय थाय ते तो मिथ्यात्वभाव छे,
धर्मीने तेनो अभाव छे. कर्म अने ते कर्म तरफनो भाव ए मारा स्वभावमां छे ज नहि, हुं तो अबंधस्वभाव
छुं–आवी द्रष्टिमां धर्मीने निःशंकता छे, तेथी शंकाकृत बंधन तेने थतुं नथी, पण निर्जरा ज थाय छे.
पार अंतरथी रुचि अने प्रतीतनो आ विषय छे. हुं एक जाणनार–देखनार स्वभावमय छुं, बीजा बंधभावो
मारा स्वरूपमां छे ज नहि,–आवी द्रष्टिथी अबंधपरिणामे वर्तता सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने बंधन थवानी शंकारूप
मिथ्यात्वादिनो अभाव छे. धर्मी जाणे छे के–हुं ज्ञायकभाव छुं; ‘मारो ज्ञायकस्वभाव कर्मथी ढंकाई गयो’–एवी
ज्ञायकस्वभावनी निःशंकता ते ज धर्मनुं साधन छे. ज्ञायकस्वभावनी सन्मुखता थई त्यां बीजा साधनमां
व्यवहारसाधननो उपचार आव्यो. पण ज्यां ज्ञायकस्वभावनी सन्मुखद्रष्टि नथी त्यां तो बीजा साधनने
व्यवहारसाधन पण कहेवातुं नथी.