Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 25

background image
: आसो : २४८३ ‘आत्मधर्म’ : १४ :
आचार्यदेव कहे छे के सम्यग्द्रष्टिने निःशंकता आदि जे आठ चिह्नो छे ते आठ कर्मोने हणी नांखे छे.
समकिती धर्मात्मा अंर्तद्रष्टिवडे निजरसथी भरपूर एवा पोताना ज्ञानस्वरूपने निःशंकपणे अनुभवे छे,
ज्ञानना अनुभवमां रागादि विकारने जरा पण भेळवता नथी. निःशंकपणे ज्ञानस्वरूपनो अनुभव समस्त
कर्मोने हणी नांखे छे.
ज्ञानस्वरूपना अनुभव वडे ज आठ कर्मोनो नाश थाय छे. श्रद्धामां ज्यां परिपूर्ण चैतन्य स्वभावने
रागादिथी पार जाण्यो त्यां पछी ते चैतन्यस्वभावना अनुभववडे ज्ञानीने क्षणेक्षणे कर्मोनो नाश ज थतो जाय
छे, ने नवा कर्मोनुं जरापण बंधन थतुं नथी–आ रीते धर्मीने नियमथी निर्जरा थाय छे. ज्ञानस्वरूपी आत्मा
अबंधस्वभावी छे, तेनी सन्मुख ज्यां द्रष्टि थई त्यां ज्ञानीने बंधन थतुं नथी.
जुओ, आ श्रद्धानो महिमा! स्वभाव सन्मुख द्रष्टि थतां जे सम्यक्त्वरूपी झळहळतो सूरज ऊग्यो ते
सूर्यनो प्रताप समस्त कर्मोने नष्ट करी नांखे छे. निःशंकता, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढद्रष्टि, उपगूहन,
स्थितिकरण, वात्सल्य अने प्रभावना–ए आठ अंगरूपी किरणोथी झगझगतो जे सम्यकत्वरूपी सूर्य ऊग्यो तेना
प्रतापवडे सम्यग्द्रष्टि समस्त कर्मोने भस्म करीने अल्पकाळमां ज सिद्धपदने पामे छे. पूर्व कर्मनो उदय वर्ततो
होवा छतां, द्रष्टिना जोरे सम्यग्द्रष्टिने नवा कर्मोनो जरा पण बंध फरीने थतो नथी, पण पूर्वकर्म निर्जरतुं ज
जाय छे. उदय छे माटे बंध थाय–ए वात क्यांय ऊडी गई; उदय वखते चिदानंद स्वभाव तरफनी द्रष्टिना जोरे
आत्मा ते उदयने खेरवी ज नांखे छे, एटले ते उदय तेने बंधनुं कारण थया विना निर्जरी ज जाय छे.
सम्यक्त्वरूपी सूर्यनो उदय कर्मना उदयने भस्म करी नांखे छे. ज्यां मिथ्यात्वना बंधनने ऊडाडी दीधुं त्यां
अस्थिरताना अल्पबंधननी शी गणतरी?–ते पण क्रमे क्रमे टळतुं जाय छे. आ रीते ज्ञानीने स्वसन्मुख–
परिणतिने लीधे कर्मनी निर्जरा ज थाय छे, ने अल्पकाळमां सर्वकर्मनो नाश करीने ते सिद्धपदने पामे छे.–आवो
सम्यग्दर्शननो महिमा छे.
टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव हुं छुं–एवी प्रतीतिना जोरे समकितीने निःशंकता वगेरे आठ गुणो होय छे
ने शंका वगेरे आठ दोषोनो अभाव होय छे; तेथी तेने बंधन थतुं नथी पण निर्जरा ज थाय छे. समकितीना
आठ अंगनुं आठ गाथाओ द्वारा आचार्यदेव अद्भुत वर्णन करे छे.
(१) सम्यग्द्रष्टिनुं नि:शंकित – अंग
जे कर्मबंधन मोहकर्ता पाद चारे छेदतो,
चिन्मूर्ति ते शंकारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २२९
जुओ आ समकिती जीवनुं चिह्न! आ समकितीना आचार! सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा जाणे छे के हुं तो
एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायकभाव छुं, बंधन मारा स्वभावमां छे ज नहि; आ रीते अबंध ज्ञायक स्वभावनी द्रष्टिमां
धर्मीने बंधननी शंका थती नथी. आत्माना स्वभावमां बंधननी शंका के भय थाय ते तो मिथ्यात्वभाव छे,
धर्मीने तेनो अभाव छे. कर्म अने ते कर्म तरफनो भाव ए मारा स्वभावमां छे ज नहि, हुं तो अबंधस्वभाव
छुं–आवी द्रष्टिमां धर्मीने निःशंकता छे, तेथी शंकाकृत बंधन तेने थतुं नथी, पण निर्जरा ज थाय छे.
जुओ भाई, लाखो–करोडो रूपीआ खरच्ये कांई आ चीज मळे तेवी नथी, आ तो अंतरनी चीज छे.
पैसा तो पूर्वना पुण्यथी मळी जाय, परंतु आ चीज तो पुण्यथी पण मळे तेवी नथी. पैसा अने पुण्य बंनेथी
पार अंतरथी रुचि अने प्रतीतनो आ विषय छे. हुं एक जाणनार–देखनार स्वभावमय छुं, बीजा बंधभावो
मारा स्वरूपमां छे ज नहि,–आवी द्रष्टिथी अबंधपरिणामे वर्तता सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने बंधन थवानी शंकारूप
मिथ्यात्वादिनो अभाव छे. धर्मी जाणे छे के–हुं ज्ञायकभाव छुं; ‘मारो ज्ञायकस्वभाव कर्मथी ढंकाई गयो’–एवी
तेने शंका थती नथी. कर्मबंधना कारणरूप मिथ्यात्वादि भावोनो मारा स्वभावमां अभाव ज छे. –आवी
ज्ञायकस्वभावनी निःशंकता ते ज धर्मनुं साधन छे. ज्ञायकस्वभावनी सन्मुखता थई त्यां बीजा साधनमां
व्यवहारसाधननो उपचार आव्यो. पण ज्यां ज्ञायकस्वभावनी सन्मुखद्रष्टि नथी त्यां तो बीजा साधनने
व्यवहारसाधन पण कहेवातुं नथी.
जीवने एम थवुं जोईए के अरे, मारुं शुं थशे? मारुं हित केम थाय? अनादिसंसारमां क्यांय बहारमां
शरण न मळ्‌युं, माटे अंतरमां मारुं शरण शोधुं.