Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८३ ‘आत्मधर्म’ : १५ :
शुं आज स्थितिमां रहेवुं छे? भाई, अंतरमां तारुं शरण छे तेने ओळख. तारो आत्मा ज्ञायकस्वभावमय छे ते
ज तने शरणरूप छे.
समकिती धर्मात्माए पोताना ध्रुव ज्ञायकस्वभावने जाणीने तेनुं शरण लीधुं छे, ते स्वभावना शरणमां
तेने कर्मबंधन थवानी शंका ज नथी, तेथी तेने बंधन थतुं नथी पण निर्जरा ज थाय छे.
चोथा गुणस्थाने रहेला समकितीने पण ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां निःशंकता छे, बंधन करनारा
मिथ्यात्वादि भावो मारा स्वभावमां छे ज नहि–आवा भानमां धर्मीने बंधन थवानी शंका थती नथी, एटले
शंकाकृत बंधन तेने थतुं नथी, पण निःशंकताना बळे पूर्वकर्म पण तेने निर्जरी जाय छे.
(२) सम्यग्द्रष्टिनुं नि:कांक्षित – अंग
जे कर्मफळ ने सर्व धर्मतणी न कांक्षा राखतो,
चिन्मूर्ति ते कांक्षारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २३०
हुं तो एक ज्ञायकभाव ज छुं, ज्ञायकस्वभाव ज मारो धर्म छे, ए सिवाय बहारना कोई धर्मो मारां नथी,
कर्मो अने कर्मोना फळथी हुं अत्यंत भिन्न छुं. आवा अंर्तभानमां धर्मीने कोईपण कर्म के कर्मफळ प्रत्ये आकांक्षा
नथी, ए बधायने ते पुद्गलस्वभाव जाणे छे; अने ज्ञायकस्वभावथी भिन्न सर्वधर्मो प्रत्ये कांक्षाथी ते रहित छे.
आ रीते धर्मी जीव निःकांक्ष छे; तेथी कांक्षाकृत बंधन तेने थतुं नथी, पण पूर्वकर्म निर्जरी जाय छे.
हुं ज्ञानस्वभाव छुं–एवी ज्ञाननिधि जेणे पोतानी पासे देखी छे तेने परनी कांक्षा केम होय? आनंदथी
भरेली चैतन्यरिद्धि पासे जगतनी कोई रिद्धिने ज्ञानी ईच्छतो नथी. केमके–
सिद्ध–रिद्ध–वृद्धि दीसे घटमें प्रगट सदा,
अंतरकी लक्ष्मीसों अजाची लक्षपती है;
दास भगवंत के उदास रहे जगत सों,
सुखीया सदैव ऐसे जीव समकिती है.
समकिती जाणे छे के अहो! मारा आत्मानी सिद्धि, रिद्धि ने वृद्धि सदा मारा घटमां–अंतरमां ज छे; आवी
अंतरनी चैतन्यलक्ष्मीना लक्षवडे ते अयाचक लक्षपती छे, बहारनी सिद्धि–रिद्धिने ते वांछतो नथी. वळी ते
जिनेन्द्रभगवाननो दास छे ने जगतथी उदास छे. आवा समकिती जीव सदाय सुखीया छे. अहा! जेनी पासे
ईन्द्रनो वैभव तो शुं! पण त्रण लोकनी ‘विभूति’ ते पण खरेखर ‘विभूति समान’ (राख समान) छे एवी
चैतन्यनी अचिंत्य विभूति जेणे पोताना अंतरमां देखी ते जीव बहारनी विभूतिने केम वांछे?
चैतन्यनी रिद्धि पासे धर्मीने जगतनी कोई रिद्धिनी कांक्षा नथी. ज्यां जीवस्वभाव प्रतीतमां आव्यो त्यां
कनक के पाषाण विगेरे सर्वने अजीवना धर्मो जाणीने धर्मीने तेनी कांक्षा होती नथी. जगतमां प्रशंसा थाय के
निंदा थाय, पण तेनाथी पोतानुं हित–अहित धर्मी मानता नथी, तेथी तेने ते संबंधी कांक्षा नथी;
ज्ञायकस्वभावनी भावनामां बीजा परभावरूप अन्य धर्मोनी आकांक्षा ज्ञानीने होती नथी. आ रीते
समकितीजीव जगतमां सर्वत्र निःकांक्ष छे; तेथी परनी कांक्षकृत बंधन तेने थतुं नथी, पण निर्जरा ज थाय छे.
कया ईच्छत खोवत सबे है ईच्छा दुःख मूल
अरे जीव! सुख तो तारा चैतन्य स्वभावमां छे, ते सुखने चूकीने बहारना पदार्थोमांथी सुख लेवानी
वांछा तुं केम करे छे? पोताना ज्ञानानंदस्वभावनी भावना छोडीने परनी ईच्छा ते दुःखनुं मूळ छे. कर्मीने
ज्ञानानंदस्वभाव सिवाय बीजा कोईनी भावना नथी. अस्थिरतानी ईच्छा धर्मीने थाय ते ईच्छानी तेने
भावना नथी, ते ईच्छाने पोताना ज्ञायक स्वभावथी भिन्न जाणे छे, तेथी ज्ञायक स्वभावनी द्रष्टिमां परमार्थे
तेने ईच्छानो अभाव ज छे. आ रीते ईच्छाना अभावने लीधे तेने सर्वत्र निष्कांक्षपणुं ज छे, ने तेथी तेने
निर्जरा ज थाय छे; वांछाना अभावने लीधे कांक्षाकृत बंधन तेने थतुं नथी.
(३) सम्यग्द्रष्टिनुं निर्विचिकित्सा – अंग
सौ कोई धर्म विषे जुगुप्साभाव जे नहि धारतो,
चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३१
हुं एक वीतरागी ज्ञानस्वभाव छुं–एवुं ज्यां अंतर्वेदन थयुं त्यां धर्मीने जगताना कोई पदार्थना स्वरूप