Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष चौदमुं सम्पादक आसो
अंक बारमुं रामजी माणेकचंद दोशी २४८३
भ्रान्ति टळी.ने.भान थयुं त्यारे
जेम अंधाराने लीधे कोई पुरुष झाडना ठुंठाने के पत्थरना पाळीयाने पुरुष मानीने तेने
बोलावे, तेना उपर प्रेम करे, तेनी साथे लडे, लडतां लडतां ते पोताना उपर पडे त्यां एम माने
के आणे मने दाब्यो, ने कहे के भाई सा’ब! हवे ऊठ.....एम अनेक प्रकारे तेनी साथे भ्रांतिथी
चेष्टाओ करे, पण ज्यां प्रकाश थाय त्यां देखाय के अरे, आ तो पुरुष नथी पण पत्थर छे–ठुंठ छे,
में भ्रांतिथी व्यर्थ चेष्टा करी! तेम अज्ञानी जीव अज्ञानरूपी अंधाराने लीधे अचेतन शरीरादिने
ज आत्मा मानीने तेथी साथे प्रीति करतो, बाह्य विषयोने पोताना ईष्ट–अनिष्टकारी मानीने
तेमनी साथे राग–द्वेष करतो, अने देहनी क्रियाओ ते मारी ज छे–हुं ज खाउं छुं, हुं ज बोलुं छुं–
एम मानीने भ्रांतिथी अनेक प्रकारनी चेष्टाओ करतो; पण ज्यां ज्ञानप्रकाश थयो ने
स्वसंवेदनवडे आत्माने देहथी अत्यंत भिन्न जाण्यो त्यां धर्मी जाणे छे के अरे! में पूर्वे
अज्ञानदशामां भ्रमणाथी देहने ज आत्मा मानीने व्यर्थ चेष्टाओ करी. पण हवे भान थयुं के आ
देह तो माराथी जुदो छे. हुं अरूपी चैतन्यस्वरूपनी स्वसंवैद्य छुं; शरीरथी मारी अत्यंत जुदो
अचेतन छे; जेम लाकडानो थांभलो माराथी जुदो छे तेम आ देह पण माराथी जात ज जुदी छे.
शरीर रूपी, हुं अरूपी; शरीर जड, हुं चेतन;
शरीर संयोगी, हुं असंयोगी; शरीर विनाशी, हुं अविनाशी;
शरीर आंधळुं, हुं देखतो. शरीर ईन्द्रियग्राह्य, हुं अतीन्द्रिय– स्वसंवेदनग्राह्य;
.
आ रीते शरीरने अने मारे अत्यंत भिन्नता छे. आवा अत्यंत भिन्नपणाना विवेकथी
ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां धर्मीने शरीरनी चेष्टाओ प्रत्ये उदासीनता थई गई छे, अर्थात् शरीरनी
चेष्टा मारी छे–एम हवे जरा पण भासतुं नथी. अज्ञानपणामां जड ईन्द्रियोने पोतानी मानीने
ईन्द्रियोनो दास–विषयोनो गुलाम–थई रह्यो हतो, ने हवे ज्ञानदशामां पोताने जड ईन्द्रियोथी
भिन्न जाण्यो छे तेथी ज्ञानी ईन्द्रियोनो दास नथी पण तेनाथी उदास छे. ने अतीन्द्रिय आत्मानो
दास (उपासक) छे. आ रीते देहादिथी अत्यंत उपेक्षित थईने चिदानंदस्वरूपनी उपासनावडे तेने
समाधि (एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र)नी प्राप्ति थाय छे. देहादिथी भिन्न आत्मतत्त्वना
चिंतन विना कदी समाधि थाय ज नहि.
(–समाधिशतक प्रवचनोमांथी)