
वगर, मोटा बारिस्टरने के भरवाडने कोईने धर्म थाय एम बनतुं नथी, तेमज क्रोधादि पण खरेखर घटता
नथी. क्रोध शुं? क्रोधनो करनार अने घटाडनार कोण? तथा तेनो क्रोध वगरनो स्वभाव केवो छे? ते बधुं
जाण्या वगर कोना लक्षे क्रोधादि छोडशे? जेम प्रकाशना भाव वगर अंधारानो अभाव थाय नहि, प्रकाश थाय
तो अंधारुं टळे; तेम क्रोध रहित एवा चिदानंदस्वभाव तरफनो भाव प्रगटया वगर क्रोधनो अभाव थाय नहि.
ज्ञानी तो चैतन्य स्वभावमां एकता करीने क्रोधादिनो अभाव करी नांखे छे. आवा चैतन्यस्वभावना लक्ष
वगर अज्ञानी क्रोध टाळवा मांगे तो कांई क्रोध टळे नहि, भले ते कषायनी मंदता करे तो पण अनंतानुबंधी
कषाय तेने ऊभो ज छे.
चिंतित वस्तु मळे नहि, केमके तेनी पक्कडमां पथरो छे. तेम धर्मी तो पोतानी द्रष्टिमां चैतन्य चिंतामणि अनंत
शक्तिसंपन्न भगवान आत्माने पकडीने तेने चिंतवे छे, ने तेना चिंतनथी ते तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्राप्त करे
छे ने कषायोनो अभाव करे छे. परंतु अज्ञानी अनंतशक्तिसंपन्न चैतन्य–चिंतामणिने ओळख्या विना राग–द्वेष
पुण्य–पाप वगेरे कषायोनी पक्कड करीने तेना चिंतनथी ‘आ करतां करतां अमने सम्यग्दर्शन थजो, सम्यग्ज्ञान थजो,
सम्यक्चारित्र थजो’–एम इच्छे छे, पण ए रीते कंई सम्यग्दर्शनादि थाय नहि. आ रीते पोताना शुद्ध स्वभावने
समजीने तेने पकडया वगर (एटले के तेनुं ज अवलंबन कर्या वगर) सम्यग्दर्शनादि धर्म थाय नहि, ने कषायो टळे
नहि.
* रागादि विकारनो पण त्रिकाळी स्वभावमां अभाव छे.
* स्वभावमांथी प्रगटेली एक समयनी निर्मळ पर्यायनो पण बीजा समये अभाव थई जाय छे, ने बीजी
साधक पर्याय हो के सिद्ध पर्याय हो,–बधी पर्यायो वखते शुद्ध द्रव्यस्वभाव तो सदा एकरूपे वर्ते छे,
भाव थाय छे. एकना अभाव वगर बीजानो भाव करवा मांगे, के एकना भाव विना बीजानो अभाव करवा
मांगे, तो तेम बनी शकतुं नथी. मिथ्यात्वना अभाव वगर सम्यक्त्वनो भाव, के सम्यक्त्वना भाव वगर
मिथ्यात्वनो अभाव बनी शके नहि, माटे, पहेला समये वर्तती अवस्थानो बीजा समये अभाव थवारूप भाव–
अभाव–शक्ति, तथा पहेला समये नहि वर्तती अवस्थानो बीजा समये उत्पाद थवारूप अभाव–भावशक्ति,–
एवी बंने शक्ति ज्ञानस्वरूप आत्मामां रहेली छे.–आवी शक्तिवाळा आत्माने ओळखवाथी भगवान
आत्मानो शुद्धपणे अनुभव थाय छे एटले के सम्यक् श्रद्धा–ज्ञानमां अनंत शक्तिवाळो भगवान आत्मा प्रसिद्ध
थाय छे. ए ज धर्म छे ने ए ज मोक्षनो उपाय छे.
तेमज सम्यग्दर्शनादिनी विराधना छे. सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र शुं चीज छे–तेना महिमानी गंध पण तेने
नथी.
भाव चैतन्य स्वभावना आश्रये थाय छे, ते माटे कोई परना आश्रयनी जरूर नथी. मारी वर्तमान पर्यायमां
केवळज्ञाननो अभाव होवा छतां, तेनो सदाय अभाव ज रहे–एवुं नथी, पण तेनो भाव करवानी ताकात मारा
आत्मामां रहेली छे,–एम साधकने स्वशक्तिनो विश्वास छे, तेथी तेने स्वशक्तिनी सन्मुखताथी अल्पकाळमां
केवळज्ञाननो भाव ऊघडी जाय छे.