Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४८४ः१३ः
स्वभावमांथी; ते स्वभाव केवो छे? के शुद्ध अनंतशक्ति संपन्न छे, ते स्वभावमां विकार नथी; माटे विकार प्रगटवानी
वात न लेवी पण निर्मळपर्याय प्रगटवानी ज वात लेवी. आत्मामां सिद्धपर्यायनो अत्यारे अभाव छे माटे कदी
सिद्धपर्याय प्रगटशे ज नहि–एम नथी, केमके आत्मानी अभाव–भावशक्ति एवी छे के भविष्यनी जे निर्मळपर्यायनो
अत्यारे अभाव छे ते पछी भावरूप थाय छे. आवी निज शुद्धशक्तिनी प्रतीत होवाथी साधकने एम संदेह नथी ऊठतो
के भविष्यमां मारा स्वभावमांथी अशुद्धता प्रगट थशे;–पण तेने तो स्वभावना भरोसे निःसंदेहता छे के मारा
स्वभावमांथी शुद्धपर्यायनो ज प्रवाह सादि–अनंतकाळ सुधी वहेशे. भविष्यमां मारा आत्मामांथी विकारनो ‘भाव’
नहि थाय, तेनो तो ‘अभाव’ थशे, ने केवळज्ञान तथा सिद्धपदनो ‘भाव’ थशे.
हे जीव! तारी पर्यायमां हितनो अभाव छे अने तारे हित प्रगट करवुं छे तो ते हित क्यां शोधवुं? परमां के
विकारमां एवी ताकात नथी के तने हित आपे. तारा स्वभावमां ज हित शोध, तेनामां ज एवी ताकात छे के हितरूप
दशाने पोतामांथी प्रगट करे.
पोताना शुद्ध स्वभावने प्रतीतमां राखीने, तेना आधारे, पहेला समये अविद्यमान एवी निर्मळ–निर्मळ
पर्यायोने प्रगट करीने तेनो कर्ता धर्मी जीव थाय छे; परंतु विकारनो कर्ता थतो नथी, तेनो तो अभाव करतो जाय छे;
तथा शरीरादि जडनो तो आत्मामां अभाव ज छे, तेथी तेनो पण कर्ता थतो नथी.
जडनो आत्मामां त्रिकाळ अभाव छे ते कदी आत्मामां भावरूप थता नथी; शुद्ध स्वभावमां विकारनो अभाव
छे तेथी ते शुद्धस्वभावनी द्रष्टिमां धर्मीने विकारी भावो भावरूप थईने प्रगटता नथी; तेने तो ‘अभाव’ रूप एवी
निर्मळ पर्यायो ज ‘भाव’ रूप थईने प्रगटे छे. आवुं ‘अभाव–भाव’ शक्तिनुं सम्यक् परिणमन छे. आवुं सम्यक्
परिणमन कोने थाय? के जेने शुद्ध द्रव्य उपर द्रष्टि छे तेने ज शुद्ध परिणमन थाय छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी जे निर्मळपर्याय पहेला समये अभावरूप हती ने बीजा समये ते पर्याय प्रगटीने
भावरूप थई; तो ते ‘भावरूप’ कोण परिणम्युं?
* शरीरादिनो आत्मामां अभाव छे,
* पहेला समयना विकारनो बीजा समये अभाव छे,
* पहेला समयनी निर्मळ पर्यायनो पण बीजा समये अभाव छे,
ते त्रणे अभावरूप छे, ते कोई बीजा समये भावरूप थता नथी, तो बीजा समयनो शुद्धभाव क्यांथी आव्यो?
के शुद्ध द्रव्यमां ज तेवा भावरूप थवानी ताकात छे, तेथी ते पोते ज बीजा समये तेवा भावरूप थयुं छे–आ रीते शुद्ध
द्रव्यने लक्षमां लईने तेनी सन्मुख परिणमे तेने ज अभाव–भावशक्तिवाळा आत्माने जाण्यो अने मान्यो छे. वर्तमान
पर्यायमां एवी ताकात नथी के ते बीजी पर्यायने प्रगटावे, एटले पर्यायद्रष्टिथी ‘अभाव–भाव’ शक्तिवाळा आत्मानी
प्रतीत थई शकती नथी, जेने शुद्ध द्रव्य उपर द्रष्टि नथी तेने आत्मानी शक्तिओनुं निर्मळ परिणमन थतुं नथी.
वर्तमानमां जे निर्मळ पर्यायो अभावरूप छे ते प्रगटवानी शक्ति मारा आत्मामां छे, तेथी मारा आत्मानी
शक्ति सन्मुख थईने ‘अभावनो भाव’ करुं–एम न मानतां, परमांथी मारी निर्मळ पर्याय लावुं–एम अज्ञानी माने छे,
तेने निजशक्तिनी प्रतीत नथी. धर्मीने निज शक्तिनी प्रतीत छे, ते पोतानी पर्याय परमांथी आववानुं मानता नथी,
एटले पोतानी निर्मळ पर्याय प्रगटाववा माटे ते परनी सामे के विकारनी सामे जोता नथी, पर्यायबुद्धि करता नथी, पण
शुद्ध द्रव्यनी सन्मुख एकाग्र थईने तेमांथी निर्मळ पर्याय प्रगट करे छे. निर्मळ पर्यायनी ताकात ज्यां भरी होय तेमांथी
आवे के बहारमांथी? ज्यां शुद्ध ज्ञान–आनंदनी ताकात भरी छे तेनी सन्मुख थतां तेमांथी ज्ञान–आनंदनी शुद्ध पर्याय
प्रगटे छे. स्वशक्तिनी सन्मुख थया विना बहारथी प्रगट करवा मांगे तो अनंतकाळे पण ते प्रगटे नहि.
अज्ञानी तो, परनो पोतामां ‘अभाव’ छे तेने ‘भाव’ रूप करवा मांगे छे; आत्मानी अभाव–भावशक्तिनी
तेने खबर नथी.
ज्ञानी तो, ‘अभावरूप’ एवी निर्मळ पर्यायने पोतानी स्वशक्तिमां अंतर्मुख थईने ‘भाव’ रूप करे छे,
एटले शुद्धतामांथी शुद्धताने ज प्रगट करतो जाय छे. शुद्धस्वभाव उपर जेनी द्रष्टि नथी ते विकारने लंबाववा मांगे छे,
जे शुभाशुभ परिणाम छे ते बीजी क्षणे प्रगट करुं–एम तेने आस्रवनी ज भावना छे; आत्मानी शुद्धशक्तिनी भावना
तेने नथी.
आत्मा जडनी क्रिया करे अथवा जडनी क्रियाथी आत्माने लाभ थाय एम माननार पोतामां जडनो ‘भाव’
करवा इच्छे छे, ते मिथ्याद्रष्टि छे.