Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः१४ः आत्मधर्मः १६९ः
ए ज प्रमाणे विकारथी लाभ माननार विकारने पोतामां भावरूप राखवा इच्छे छे, ते पण मिथ्याद्रष्टि छे, तेने
क्षणे क्षणे विकारनो ज भाव थाय छे, पण निर्मळतानो भाव थतो नथी. दयादिना शुभ परिणाम हुं भविष्यमां टकावी
राखीश–एम जेनी भावना छे तेने आस्रवनी भावना छे एटले संसारनी भावना छे. सम्यग्द्रष्टिनी भावना स्वभाव
उपर छे, ते तो शुद्ध स्वभावनी भावनाथी शुद्धतानो ज भाव करतो जाय छे. हुं अनंत शक्तिनो पिंड शुद्धचैतन्य
स्वभाव छुं, समस्त रागनो मारा स्वभावमां अभाव छे; मारा स्वभावमां एवी ताकात छे के जे निर्मळ पर्याय पहेलां
अभावरूप होय तेने प्रगट करुं,–आम पोताना स्वभावने जाणीने, तेनी ज भावनाथी धर्मी जीव निर्मळ पर्यायरूपे
परिणमतो जाय छे.
अनादि काळना अज्ञानी जीवे, सत्समागमे बहुमानपूर्वक स्वभावनुं श्रवण करीने, पछी अंतर्मुख थईने
ते स्वभावनी प्रतीत करी त्यां अनादिना मिथ्यात्वनो अभाव थयो (ते भाव–अभाव छे), अने अपूर्व
सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं (ते अभाव–भाव छे); आवुं सम्यग्दर्शन थयुं ते ज समये सिद्धदशा वर्तमान नथी तो
पण भविष्यनी सिद्धपर्याय प्रगटवानी ताकात मारा द्रव्यमां छे–एम द्रव्यद्रष्टिना जोरे समकितीने सिद्धदशानी
निःशंकता थई गई छे. सिद्धदशा करुं के सम्यग्दर्शनादि करुं एवा विकल्पथी कांई सिद्धदशा के सम्यग्दर्शनादि थता
नथी, पण निर्विकल्प द्रव्यस्वभाव तेमां एकाग्र थतां सम्यग्दर्शनादि निर्मळ–पर्याय प्रगटी जाय छे माटे धर्मीनी
द्रष्टिमां आवा शुद्धद्रव्यस्वभावनी ज मुख्यता छे. ‘मोक्ष करुं’ एवा विकल्प आवे पण ते विकल्पनी मुख्यता
नथी, विकल्पनुं शरण नथी, शुद्धस्वभावनुं ज शरण छे. तेना शरणे ज मिथ्यात्व टळीने सम्यक्त्व थाय छे,
तेना शरणे ज अस्थिरता टळीने स्थिरता थाय छे, तेना शरणे ज अल्पज्ञता टळीने सर्वज्ञता थाय छे. आ रीते
शुद्धद्रव्यस्वभावना आश्रये शुद्धपरिणमन थाय छे–तेमां पुरुषार्थ पण भेगो ज छे, अने ए ज सम्यक् पुरुषार्थ
छे. आ सिवाय एक पुरुषार्थ गुणने जुदो पाडीने पुरुषार्थ करवा जाय–तो तेने भेदना आश्रये राग ज थाय छे,
पण शुद्धता थती नथी. ‘हुं पुरुषार्थ करुं’ एवा विकल्पथी खरो पुरुषार्थ थतो नथी, पुरुष एटले शुद्धआत्मा
तेनी साथे परिणति एकमेक थईने शुद्धतारूपे परिणमी ते ज खरो पुरुषार्थ छे, तेमा एक साथे अनंतगुणोनुं
निर्मळ परिणमन ऊछळे छे. शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी सन्मुख थईने तेमां सावधानी करी त्यां हवे विषयकषायरूपी
चोर आवी शकता नथी.
आ चैतन्यस्वरूप आत्माना परिणमनमां एवुं भाव–अभावपणुं छे के पहेला समयनी अवस्था बीजा समये
अभावरूप थई जाय छे. एटले दरेक समये तेनी अवस्था पलटी जाय छे. जो एक ज अवस्था चालु रह्या करे ने भावनो
अभाव न थाय तो अज्ञानीनुं अज्ञान कदी टळे ज नहि, साधकनुं साधकपणुं कदी टळे ज नहि; तेमज नवी अवस्था
प्रगटवारूप ‘अभाव–भाव’ जो न होय तो अनादिथी अभावरूप एवुं सम्यग्ज्ञान कदी प्रगटे ज नहि, केवळज्ञान प्रगटे
ज नहि.–पण एम नथी. आचार्य भगवान कहे छे के अरे जीव! तुं मुंझाइश नहि...मुंझाइश नहि... ‘अरेरे घणा काळथी
सेवेलुं अज्ञान हवे केम टळशे? ने मने सम्यग्ज्ञान केम थशे?’ आम तुं मुंझाईश नहीं. अनादिथी अज्ञान सेव्युं माटे ते
अज्ञान सदाय टकी ज रहे–एम नथी, अने अनादिथी ज्ञान न कर्युं माटे हवे ते ज्ञान न ज थाय– एम पण नथी.
अनादिथी समये समये विद्यमान एवा अज्ञाननो अभाव करीने अपूर्व सम्यग्ज्ञाननो भाव थाय छे– एवी शक्तिओ
तारा आत्मामां भरी छे, तेनो एक वार विश्वास कर तो तारी मुंझवण मटी जाय. जे जे पर्याय आवे छे ते ‘अभाव’ ने
साथे लेती आवे छे एटले बीजे समये जरूर तेनो अभाव थई जशे. जेम, जे जन्मे छे ते मरणने साथे ज लेतुं आवे छे
तेम जे पर्याय जन्मे छे ते बीजा समये जरूर नाश पामे छे. अने बीजा समये नवी पर्याय उत्पन्न थाय छे. शुद्धद्रव्यनो
आश्रय करनारने ते पर्याय शुद्ध थाय छे, माटे हे भाई! तुं मुंझाईश नहि; आ अधूरी पर्याय वखते ज तेनी पाछळ
(अंतर स्वभावमां) पूर्ण शुद्ध पर्याय प्रगटवानी ताकात तारा आत्मामां भरी छे, माटे तेनी सन्मुख था.
वर्तमानमां आत्माने संसारपर्यायनो सद्भाव छे, पण ते ‘भावनो अभाव’ करी नांखे एवी ताकात पण
साथे ज पडी छे. जो तेने प्रतीतमां ल्ये तो संसारनो अभाव थया विना रहे नहि.
अने वर्तमानमां आ आत्माने सिद्धपर्यायनो अभाव छे, पण ते ‘अभावनो भाव’ करवानी ताकात