Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४८४ः१पः
पण साथे ज पडी छे. जो आत्माना आवा स्वभावने प्रतीतमां ल्ये तो सिद्धदशा प्रगटया विना रहे नहि.
–आ रीते ‘भाव–अभाव’ अने ‘अभाव–भाव’ शक्तिवाळा आत्मस्वभावने ओळखतां संसार टळीने
सिद्धदशा थाय छे. ते सिद्धदशा थया पछी पण भाव–अभाव ने अभाव–भाव तो थया ज करे छे, अर्थात् एक पछी
एक पर्याय बदलाया ज करे छे, पण ते बधी पर्यायो एकसरखी शुद्ध ज थाय छे, क्षणे क्षणे नवी नवी पर्यायनो
अनुभव थया करे छे.
भावनो अभाव अने अभावनो भाव एवा अखंड प्रवाहनी धारामां साधक धर्मीने शुद्धतानी वृद्धि थती जाय छे.
जगतना चेतन के अचेतन बधा पदार्थोमां पण भावनो अभाव ने अभावनो भाव एवुं पर्यायनुं रूपांतर
पोतपोताना स्वभावथी थई ज रह्युं छे. जे जीव आवा वस्तुस्वभावने जाणे तेने जगतना कोई पण पदार्थोमां
‘चालती पर्यायनो हुं अभाव करुं के न होय तेने हुं उत्पन्न करुं’ एवी भ्रमणाबुद्धि रहेती नथी, पण मोहरहित
ज्ञातापणुं ज रहे छे.
चैतन्यस्वभावनी अतिशय विराधना करनार जीव निगोद अवस्थाने (–आत्मानी हलकामां हलकी
दशाने) पामे छे; जीवना स्वभावने भूलीने देहनी अत्यंत मूर्च्छाथी ते निगोदनो जीव एक अंतर्मुहूर्तमां
उत्कृष्टपणे ६६३३६ शरीर फेरवी नांखे छे, एक शरीर छोडीने बीजुं, ने बीजुं छोडीने त्रीजुं–एम ६६३३६ भव
४८ मिनिटमां धारण करे छे.–जुओ एनी ममतानुं फळ!! अने क्षणेक्षणे ते अनंतानंत दुःखनी वेदना भोगवी
रह्यो छे–एवुं अपार दुःख, के जेने केवळीभगवान ज जाणे अने ते निगोदनो जीव ज भोगवे! अने
सिद्धभगवंतो शरीररहितपणे समये समये चैतन्यनी पर्याय पलटावीने परिपूर्ण आनंदनो ज अनुभव करी
रह्या छे. देहनी ममता तोडीने देहथी भिन्न आनंदस्वरूप आत्मानी आराधना करीने तेना फळमां सिद्धदशा
प्रगटी, त्यां क्षणेक्षणे देहातीत अतीन्द्रिय आनंदनुं ज वेदन छे; एक आनंदपर्याय पलटीने बीजी ने बीजी
आनंद पर्याय पलटीने त्रीजी, एम सादिअनंत आनंदनी ज धारा चाल्या करे छे. अहो! ए आनंद जगतना
जीवोने इन्द्रियद्वारा गम्य नथी.
वर्तमान साधकदशामां सिद्धदशानो अभाव होवा छतां ते अभावनो भाव थवानी ताकात आत्मामां छे.
संसार पर्याय वखते सिद्धपर्याय प्रगट न होय, पण ते प्रगटवानी ताकात तो आत्मामां भरी ज छे. अंदरमां
ताकात भरी छे तेमांथी ज ते पर्याय चाली आवे छे. जेम पाणीनुं मोटुं सरोवर भर्युं होय तेमांथी धाराप्रवाह
चाल्यो आवे; तेम आ चैतन्यसरोवर–आनंदसरोवर एवा आत्माना स्वभावमां निर्मळ पर्यायो प्रगटवानी
ताकात भरी छे तेमांथी ज निर्मळ पर्यायोनो प्रवाह चाल्यो आवे छे,–पण कोने? के जे पोताना स्वभाव सामे
जुए तेने.
आहा! मारा आनंद माटे मारे क्यांय पर सामे जोवानुं ज नथी....मारो आत्मा ज आखे आखो
आनंदस्वभावथी भरेलो छे. तेना ज संतोए अपार गाणां गाया छे.–आम स्वसन्मुख थईने पोताना स्वभावनी
प्रतीत करवी ते ज आ शक्तिओना वर्णननुं तात्पर्य छे.
हे जीव! सिद्धदशा वगेरे निर्मळ पर्यायनो अत्यारे तारामां अभाव छे ने तेनो भाव करवो छे, तो ते
अभावनो भाव कोना आधारे थशे? निमित्तना, विकारना के वर्तमान पर्यायना आधारे ते भाव नहि थाय;
एक पर्यायमां बीजी पर्यायने प्रगट करवानुं सामर्थ्य नथी; पण वस्तुना स्वभावमां त्रिकाळशक्ति पडी छे
तेमांथी समये समये अविद्यमान पर्यायोनो उत्पाद थया करे छे, माटे अभावरूप एवी निर्मळ पर्यायोनो भाव
द्रव्यस्वभावनी सन्मुखताथी थाय छे. अभावभावशक्तिनी प्रतीत करनार द्रव्यस्वभावनी सन्मुख थाय छे अने
द्रव्यना आश्रये तेने क्षणे क्षणे विशेष विशेष निर्मळ पर्यायो प्रगटती जाय छे. अल्पज्ञता वखते सर्वज्ञतानो
अभाव छे, पण वस्तुमां सर्वज्ञतानी शक्ति त्रिकाळ भरी छे–तेनी धर्मीने प्रतीत छे; अने ते शक्तिना आधारे
ज सर्वज्ञता खीली जशे (–अभावनो भाव थई जशे) एवी धर्मीने निःशंकता छे. चोथा गुणस्थाने पर्यायमां
केवळज्ञाननो अभाव होवा छतां समकितीने सर्वज्ञशक्तिवाळो आत्मस्वभाव प्रतीतमां आवी गयो छे एटले
श्रद्धाअपेक्षाए केवळज्ञान थई गयुं छे. जो सर्वज्ञ शक्तिनो निःशंक निर्णय न थाय तो ते जीवे आत्माने जाण्यो
ज नथी. पूर्णता प्रगटया पहेलां, जेनामांथी पूर्णता प्रगटवानी छे एवा स्वभावनी प्रतीत थई जाय छे तेनुं
नाम सम्यग्दर्शन छे. जो आत्माना स्वभावने प्रतीतमां ल्ये तो, “अरेरे! अनादिनुं अल्पज्ञपणुं छे ते केम
टळे! अने अनादिथी सर्वज्ञपणुं नथी थतुं ते हवे केम थाय?”–एवी शंका के मुंझवण न रहे. विद्यमान एवी
अल्पज्ञतानो अभाव करी नांखे, अने नहि प्रगटेली एवी सर्वज्ञताने प्रगट करे–एवी मारा