Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः१६ः आत्मधर्मः १६९
आत्मामां ताकात छे–एम साधकने आत्मविश्वास जागी गयो छे, एटले हवे ते शक्तिना अवलंबने
अल्पकाळमां अल्पज्ञता टळी जशे ने सर्वज्ञता प्रगटी जशे,–तेमां साधकने संदेह रहेतो नथी. अहो!
अनंतशक्ति संपन्न चैतन्य भगवान समये समये बिराजी रह्यो छे, तेनी सन्मुख थईने सेवन करतां करतां
साधकने अविद्यमान एवा केवळज्ञानादि भावो खीली जाय छे. पर्यायना आधारे पर्याय नथी, एटले धर्मीनी
द्रष्टिमां पर्यायनुं अवलंबन नथी पण अखंड आत्मस्वभावनुं ज अवलंबन छे. ज्यां अखंड आत्मानुं
अवलंबन लीधुं त्यां मिथ्यात्वनो अभाव थईने सम्यग्दर्शन थयुं छे; अने त्यार पछी पण तेना ज अवलंबने
साधकने निर्मळ–निर्मळ पर्यायोना ज भाव–अभाव ने अभाव–भाव थया करे छे. ए खास समजवा जेवी
वात छे के स्वभावद्रष्टिमां साधकने विकारनो भाव–अभाव के अभाव–भाव नथी, पण निर्मळतानो भाव–
अभाव ने अभाव–भाव छे; एक निर्मळ पर्याय थई तेनो बीजे समये अभाव, ने बीजी निर्मळ पर्यायनो
भाव, वळी बीजा समये ते निर्मळ पर्यायनो अभाव ने त्रीजी निर्मळ पर्यायनो भाव, ए रीते स्वभावना
आश्रये निर्मळतानो ज भाव–अभाव ने अभाव–भाव थाय छे, स्वभावनी द्रष्टिमां विकारनो तो अभाव ज
छे, ते द्रष्टिमां विकारनुं परिणमन ज नथी, तेथी विकारनां भाव–अभावनी के अभाव–भावनी आमां मुख्यता
नथी. अहीं तो स्वभाव सन्मुख थईने, स्वभावना अवलंबने निर्मळ निर्मळ क्रमबद्ध पर्यायोना भाव–
अभावरूपे तथा अभाव–भावरूपे परिणमता साधक आत्मानी वात छे, निर्मळपर्याय सहित आत्मानी वात
छे. एकला विकाररूपे परिणमे तेने खरेखर आत्मानुं परिणमन कहेता नथी. शुद्धस्वभावना आश्रये आत्मा
निर्मळ–पर्यायरूपे परिणमी ज रह्यो छे, त्यां ‘आ पर्यायने आम पलटावुं’ एवी पर्यायबुद्धि ज्ञानीने नथी, ते
तो स्वभाव साथे एकता करीने निर्मळपणे ज परिणमता जाय छे.
भावनो अभाव, ने अभावनो भाव–ए रूपे समये समये परिणम्या करे एवो आत्मानो स्वभाव छे
एटले आत्माना बधा गुणो पण ए ज रीते परिणमी रह्या छे. अनंतगुणना पिंडरूप आत्मस्वभावना लक्षे ज्यां
परिणमन थयुं त्यां बधाय गुणोमां निर्मळ परिणमननी शरूआत थई जाय छे. द्रव्यना अनंत गुणोमां एवी
ताकात (अभाव–भावशक्ति) छे के वर्तमान जे निर्मळपर्यायनो अभाव छे तेनो बीजे समये भाव थशे; अने
ए रीते अनंत–अनंतकाळ सुधी नवी नवी निर्मळ पर्यायोनो भाव आव्या ज करे–एवी आत्मामां ताकात छे.
क्यांथी ते भाव आवशे? द्रव्यना स्वभावमांथी; आ रीते द्रव्यस्वभावनी सन्मुख थईने तेनी प्रतीत करवानी छे.
आ रीते अनेकान्तमूर्ति आत्मानी प्रतीत करे तो ज तेनी शक्तिओनी प्रतीत थाय छे, अने तेने ज स्वभावनी
सन्मुखताथी निर्मळ निर्मळ पर्यायो थाय छे.–आवुं अनेकांतनुं फळ छे. जे जीव स्वभावसन्मुख थतो नथी तेने
अनेकान्तमूर्ति आत्मानी प्रतीत थती नथी तेमज अनेकांतना फळरूप निर्मळ पर्याय पण तेने थती नथी,
“अनेकान्त पण सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी.”–एम श्रीमद्
राजचंद्रजीए कह्युं छे तेमां पण बंने पडखां जाणीने शुद्धआत्मस्वभाव तरफ वळवानुं ज रहस्य बताव्युं छे. जे
जीव शुद्ध आत्मस्वभाव तरफ वळतो नथी तेने अनेकान्त थतो नथी. ते मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे.
जेनामां निर्मळपर्यायोनी शक्ति पडी छे तेना लक्षे निर्मळ पर्यायनो विकास थाय छे; भविष्यनी जे
निर्मळपर्याय प्रगट करवा मांगे छे ते शेमांथी आवशे? परना के विकारना आश्रये निर्मळपर्याय नहि थाय.
पण पोताना शुद्धस्वभावनो आश्रय करतां आत्मा पोते निर्मळ पर्यायरूपे परिणमी जशे. पर्यायमां खोट छे ते
पूरी करवी छे (अर्थात् केवळज्ञाननो अभाव छे तेनो भाव करवो छे) तो ते क्यांथी आवशे? द्रव्यनी
शक्तिमां पूर्णता भरी छे तेना अवलंबने पर्यायमां पण पूर्णता प्रगटी जशे. आ रीते द्रव्यनी शक्ति ज
पर्यायनी खोट पूरी पाडनार छे, बीजुं कोई नहि; माटे साधकनी द्रष्टिमां द्रव्यनुं ज अवलंबन छे. ज्ञानशक्तिमां
केवळज्ञान देवानी ताकात छे, श्रद्धा शक्तिमां क्षायक सम्यक्त्व देवानी ताकात छे, आनंदशक्तिमां पूरो
अतीन्द्रियआनंद देवानी ताकात छे. आ सिवाय कोई संयोगोमां के विकारमां एवी ताकात नथी के श्रद्धा–ज्ञान–
आनंद आपे. स्वद्रव्यमां ज एवी ताकात छे, माटे द्रव्य ज श्रद्धा–ज्ञान–आनंदनुं दातार छे. आवा द्रव्यनी
सन्मुख थईने तेनी सेवना करता ते श्रद्धा ज्ञान ने आनंदनी पूर्णताने आपे छे.
जय हो आवा दिव्यदानदातारनो!
– ३प मी भावअभावशक्तिनुं तथा ३६ मी अभावभावशक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.