दुर्बुद्धि चकवी विलख विछूरी, निबिड मिथ्यातम हरो;
आनंदअंबुद्धि उमांग ऊछर्यो, अखिल आतप निरदले,
जिनवदन पूरणचंद्र निरखत सकल मनवांछित फले. १.
चक्षुओरूपी चकोरपक्षी पुलकित थया, हृदय–कमळ हसतुं थकुं खीली गयुं, दुर्बुद्धि चकवी विलखती थकी विखूटी पडी गई,
मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकार नष्ट थयो, आनंदनो दरियो उमंगथी ऊछळवा लाग्यो, अने संसारना समस्त आताप शांत
थई गया. आ रीते हे जिनेन्द्रचंद्र! तारा दर्शनथी मारा सकळ मनोरथ सिद्ध थया.
संसारसागर नीर नीवडयो, अखिल तत्त्व प्रकाशिया;
अब भई कमला किंकरी मम उभय भव निर्मल थये,
दुःख जर्यो दुर्गति वास ‘विनह्यो’ (टळीओ) आज नव मंगल भये. २.
तत्त्वोनुं स्वरूप जाणी लीधुं; ज्ञानलक्ष्मी हवे मारी अनुचरी (–मने अनुसरनारी) थई, ने मारा बंने भवो निर्मळ
थया; दुःख छूटी गया; दुर्गतिवास टळी गयो; मारा आत्मामां आज नवीन मंगळ प्रगट थयुं.
मम सकल तनके रोम उल्लसे हर्ष ओर न पाइये;
कल्याणकाल प्रत्यक्ष प्रभुको लखें जे सुरनर घने,
तिह समयकी आनंदमहिमा कहत कयों मुखसां बने! ३.
प्राप्त थतो नथी. प्रभुना कल्याणकाळने (जन्मकल्याणक वगेरेने) घणा देवो–मनुष्यो प्रत्यक्ष देखे छे पण ते समयना
आनंदनो महिमा शुं मुखथी कही शकाय छे? भगवानना कल्याणक प्रसंगने याद करीने स्तुतिकार कहे छे के, अहो!
अमने पण जिनेन्द्रदेवना दर्शनथी एवो आनंद थाय छे.. जे वचनथी कही शकातो नथी.
मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंकमानों निधि लही;
अब होउ भव भव भक्ति तुमरी कृपा ऐसी कीजिये,
करजोड ‘भूधरदास’ विनवे, यही वर मोहि दीजिये. ४.
छे, तेथी ते पलक पण मारता नथी (– “ना जानुं कितनो सुख हरिको जो नहिं पलक लगावे!” ) ; तेम हे नाथ!
आपने नयनभर नीरखतां नीरखतां अमने एवो संतोष थयो के बीजी कोई वांछा ज न रही. आपनां दर्शनथी, जाणे
के रंकने निधान मळ्यां तेम, मारा मनना बधा मनोरथ पूरा थया. प्रभो! हवे भवोभव आपनी ज भक्ति मने प्राप्त
थाय–एवी कृपा करो ने एवुं वरदान मने आपो.–एम स्तुतिकार (कवि भूधरदास) हाथ जोडीने प्रार्थना करे छे.