Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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“यहीवर मोहि दीजिये” दर्शन स्तुति
श्री जिनेन्द्र भगवाननी परम शांत वीतरागी मुद्राना दर्शनथी भव्य भक्तजनोना अंतरमां आनंद अने उल्लासनी केवी
ऊर्मिओ ऊछळे छे? ते व्यक्त करतां, श्री जिनेन्द्र भगवाननी मुद्राने पूर्णचंद्रनी उपमा आपीने स्तुतिकार कहे छे के–
पुलकंत नयन–चकोर पक्षी, हंसत उर इंदीवरो,
दुर्बुद्धि चकवी विलख विछूरी, निबिड मिथ्यातम हरो;
आनंदअंबुद्धि उमांग ऊछर्यो, अखिल आतप निरदले,
जिनवदन पूरणचंद्र निरखत सकल मनवांछित फले. १.
जेम चंद्रने देखीने चकोरपक्षी पुलकित थाय, कमल खीली ऊठे, चकवी विखूटी पडी जाय, अंधकार दूर थाय,
समुद्र ऊछळे ने आताप नाश पामे; तेम हे जिनेन्द्र भगवान! पूर्णचंद्र समान आपनी मुद्राना दर्शनथी मारा
चक्षुओरूपी चकोरपक्षी पुलकित थया, हृदय–कमळ हसतुं थकुं खीली गयुं, दुर्बुद्धि चकवी विलखती थकी विखूटी पडी गई,
मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकार नष्ट थयो, आनंदनो दरियो उमंगथी ऊछळवा लाग्यो, अने संसारना समस्त आताप शांत
थई गया. आ रीते हे जिनेन्द्रचंद्र! तारा दर्शनथी मारा सकळ मनोरथ सिद्ध थया.
मम आज आतम भयो पावन, आज विघन विनाशिया;
संसारसागर नीर नीवडयो, अखिल तत्त्व प्रकाशिया;
अब भई कमला किंकरी मम उभय भव निर्मल थये,
दुःख जर्यो दुर्गति वास ‘विनह्यो’ (टळीओ) आज नव मंगल भये. २.
अहा...नाथ! तारा दर्शनथी आजे मारो आत्मा पावन थयो, मारा विघ्नो आज दूर थई गया, संसाररूपी
दरियो खाबोचियाना पाणी जेवो थई गयो एटले तेने हुं सहेलाईथी ओळंगी गयो, ने ज्ञानप्रकाशवडे में समस्त
तत्त्वोनुं स्वरूप जाणी लीधुं; ज्ञानलक्ष्मी हवे मारी अनुचरी (–मने अनुसरनारी) थई, ने मारा बंने भवो निर्मळ
थया; दुःख छूटी गया; दुर्गतिवास टळी गयो; मारा आत्मामां आज नवीन मंगळ प्रगट थयुं.
हजी आटलेथी पण संतोष न पामतां भगवाननी वीतरागी मुद्राना दर्शनमां लयलीन थईने दर्शक कहे छे के “आहा...
मनहरन मुरति हेरी प्रभुकी कौन उपमा लाइये!!
मम सकल तनके रोम उल्लसे हर्ष ओर न पाइये;
कल्याणकाल प्रत्यक्ष प्रभुको लखें जे सुरनर घने,
तिह समयकी आनंदमहिमा कहत कयों मुखसां बने! ३.
प्रभो! आपनी वीतरागी उपशांत मुद्रा मनोहर छे..आ अद्भुत सुंदर मुद्राने हुं कई उपमा आपुं! अहा!
आना दर्शनथी मारा आखा शरीरना रोमरोम उल्लसी जाय छे. भगवानना दर्शनथी थतो आवो हर्ष बीजे कोई ठेकाणे
प्राप्त थतो नथी. प्रभुना कल्याणकाळने (जन्मकल्याणक वगेरेने) घणा देवो–मनुष्यो प्रत्यक्ष देखे छे पण ते समयना
आनंदनो महिमा शुं मुखथी कही शकाय छे? भगवानना कल्याणक प्रसंगने याद करीने स्तुतिकार कहे छे के, अहो!
अमने पण जिनेन्द्रदेवना दर्शनथी एवो आनंद थाय छे.. जे वचनथी कही शकातो नथी.
भगवानना दर्शनथी थयेलो संतोष, अने तेनी भावना लंबावतां छेल्ली कडीमां दर्शक मांगणी करे छे के–
भर नयन नीरखुं नाथ! तुमको, और वांछा ना रही,
मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंकमानों निधि लही;
अब होउ भव भव भक्ति तुमरी कृपा ऐसी कीजिये,
करजोड ‘भूधरदास’ विनवे, यही वर मोहि दीजिये. ४.
हे नाथ! आपनी वीतरागी मुद्राने नयन भरी भरीने नीरख्या ज करुं, ए सिवाय बीजी कोई वांछा हवे नथी
रही. हजार–हजार नयनोथी आपने नीहाळतां इन्द्रने कोण जाणे केवो हर्ष थाय छे के तेनां नेत्रो आश्चर्यथी थंभी जाय
छे, तेथी ते पलक पण मारता नथी (– “ना जानुं कितनो सुख हरिको जो नहिं पलक लगावे!” ) ; तेम हे नाथ!
आपने नयनभर नीरखतां नीरखतां अमने एवो संतोष थयो के बीजी कोई वांछा ज न रही. आपनां दर्शनथी, जाणे
के रंकने निधान मळ्‌यां तेम, मारा मनना बधा मनोरथ पूरा थया. प्रभो! हवे भवोभव आपनी ज भक्ति मने प्राप्त
थाय–एवी कृपा करो ने एवुं वरदान मने आपो.–एम स्तुतिकार (कवि भूधरदास) हाथ जोडीने प्रार्थना करे छे.