Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 25

background image
मागशरः २४८४ः१३ः
परिणमनपूर्वक शुद्धात्मद्रव्यनी प्रतीत होय छे. पहेलां ज्यारे आवा शुद्धात्मानी खबर न हती त्यारे ऊंधी द्रष्टिथी
विकारनुं ज परिणमन थतुं, परंतु हवे शुद्धात्मानी द्रष्टिमां विकारनी अधिकता न रही, शुद्धतानी ज अधिकता रही.
आवी शुद्ध आत्मानी द्रष्टिमां समकितीने विकारनो अभाव ज छे.
आत्मानी शक्तिओ अनंत छे परंतु आत्मा अनंतशक्तिना भावोथी अभेद छे. आत्मानी एक पण
शक्तिना भावने यथार्थ लक्षमां लेतां अनंतशक्ति–संपन्न आखो आत्मा ज लक्षमां आवी जाय छे. समकितीनी
द्रष्टि आखा आत्माने स्वीकारे छे, ते अखंड आत्मानी द्रष्टिमां तेना बधाय गुणोनो निर्मळभाव प्रगटे छे. आ
रीते ‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व’ छे. शुद्धस्वभावना आश्रये ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां ज्ञान पण स्वसंवेदनथी
सम्यक् थयुं, चारित्रमां पण आनंदना अंशनुं वेदन थयुं, वीर्यनो वेग पण स्व तरफ वळ्‌यो. आ रीते
सम्यग्दर्शननी साथे ज बधा गुणोमां निर्मळता शरू थई जाय छे; कोई गुणोमां निर्मळता भले वधती–ओछी
होय, पण प्रतीतमां तो पूर्ण निर्मळता आवी ज गई छे. सम्यग्दर्शन पोते तो श्रद्धागुणनी पर्याय छे, पण तेनी
साथे ज्ञानादि अनंत गुणोनो पण निर्मळ अंश वर्ती ज रह्यो छे. कोई कहे के सम्यग्दर्शन थयुं पण आत्मानी
अतीन्द्रिय शांतिनुं वेदन न थयुं, सम्यग्दर्शन थयुं पण आत्मानुं स्वसंवेंदन ज्ञान न थयुं, सम्यग्दर्शन थयुं पण
वीर्यनो वेग आत्मा तरफ न वळ्‌यो,–तो एम कहेनारे अनंतगुणथी अभेद आत्माने मान्यो ज नथी; द्रव्य–
गुण–पर्यायस्वरूप आत्माना भावोने तेणे जाण्या ज नथी, अने पोताने समकिती मानीने ते सम्यग्दर्शनना
नामे पोतानो स्वच्छंद पोषे छे.
आत्मानी भावभावशक्ति छे एटले तेनामां द्रव्य–गुण–पर्याय सदाय भावरूप ज छे; ज्यां द्रव्यभाव छे त्यां ज
गुणनो भाव छे, ज्यां द्रव्य–गुणनो भाव छे त्यां ज पर्यायनो भाव छे. द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेनो भाव एक साथे ज
छे; पर्याय एक ने एक भले कायम न टके पण पर्याय वगरना द्रव्य–गुण कदी होता नथी.
कोई कहे के आत्मामां ज्ञान–आनंद शक्ति तो छे पण वर्तमान तेनो कांई भाव भासतो नथी,–तो एम
कहेनारे आत्मानी भाव–भावशक्तिने जाणी नथी; निर्मळ भावना भवन सहित ज त्रिकाळ भावनी प्रतीत थाय
छे. निर्मळ पर्याय थया वगर ‘भवता पर्याय’–वाळा आत्मानी प्रतीत क्यांथी थाय? ज्यां आत्माना स्वभावनुं
भान थयुं त्यां निर्मळ पर्यायरूप भवन (परिणमन) थाय छे. भावभावशक्तिना बळथी द्रव्य गुण ने
निर्मळपर्याय त्रणे अभेद थईने शुद्धपणे वर्ते छे; अने तेना द्रव्य–गुण–पर्यायमां विकारनो अभाव छे. आत्मानी
अभाव–अभावशक्तिनुं एवुं बळ छे के पोताथी भिन्न शरीरादि पदार्थोने, कर्मोने के विकारने ते पोताना
स्वभावमां वर्तवा देतो नथी. आत्माना द्रव्यमां, गुणमां अने ते तरफ ढळेली शुद्धपर्यायमां, ए त्रणेमां
विकारनो–कर्मनो–शरीरादिनो अभाव ज छे ने अभाव ज रहेशे. द्रव्य–गुण–पर्यायनी एकतामां हवे कदी तूट
पडशे नहि, ने विकार साथे कदी एकता थशे नहि. विकार आत्मानी साथे नहि वर्ते पण छूटो पडी जशे. आवी
आत्मशक्तिने प्रतीतमां लेवी ने तेमां एकता करवी ते मोक्षनो उपाय छे.
आत्मामां एक एवी ‘अभाव–अभाव’ शक्ति छे के तेना द्रव्य–गुण–पर्याय परना अभावरूप ज छे;
आत्माना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरे बधा गुणोमां तेमज तेनी पर्यायोमां परनो तो अभाव वर्ते छे, एटले
कोई निमित्त मेळवुं तो मारा श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र खीले ए वात रहेती नथी. देव–गुरु–शास्त्र वगेरे निमित्तो हो भले,
पण आत्मामां तो तेनो अभाव छे. अहीं तो ते उपरांत विकारना पण अभावनी सूक्ष्म वात लेवी छे. आत्माना द्रव्य–
गुण–पर्यायमां परनो त्रिकाळ अभाव छे, एनो अर्थ तो ए थयो के परना आश्रये थतो परभावोनो पण आत्मामां
अभाव छे. तेमज ‘ज्ञानादिमां अल्पता छे ते टाळीने पूर्णता करुं’ एवो भेद पण रहेतो नथी, एकरूप शुद्धद्रव्यनी
सन्मुखता ज थाय छे, अने ते द्रव्यनी सन्मुख थयेली पर्याय शुद्ध ज थती जाय छे, तेनामां विकारनो अभाव ज छे.
आवुं अभावअभाव–शक्तिनुं तात्पर्य छे.
शुद्ध आत्मा उपर जेनी द्रष्टि होय तेने ज आ शक्तिओनुं रहस्य समजाय तेवुं छे. आत्मामां कर्मनो त्रिकाळ
अभाव छे, ते कर्म कदी आत्मामां भावपणे नहि वर्ते. अज्ञानी पोकार करे छे के अरे, कर्मो मार्ग नथी आपता! पण
आचार्यदेव कहे छे