Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 25

background image
ः१४ः आत्मधर्मः १७०
के अरे भाई! तारा आत्मानी सामे तो जो! तारा आत्मामां कर्मो तो अनादिथी अभावपणे ज वर्ते छे; कर्मो तारा
आत्मामां आव्या ज नथी. कर्मनो अभाव कहेतां कर्म तरफना विकारी भावनो पण आत्माना स्वभावमां अभाव छे–
एम लक्षमां आवे छे ने शुद्ध आत्मस्वभाव उपर द्रष्टि जाय छे; त्यां पर्यायमां पण विकारनो अभाव वर्ते छे. त्रिकाळमां
अभाव हतो ने वर्तमानमां पण अभाव थयो,–आवुं अभाव–अभावशक्तिनुं निर्मळ परिणमन छे. आवा आत्माने
श्रद्धाज्ञानमां ल्ये त्यारे जीवतत्त्वने बराबर मान्युं कहेवाय. आवा जीवतत्त्वनो आश्रय करतां ज निर्मळ पर्यायरूप
संवर–निर्जरातत्त्व प्रगटे छे, अने तेना ज आश्रये पूर्ण शुद्धतारूप मोक्षदशा थाय छे; तथा पुण्य–पाप–आस्रव ने
बंधरूप मलिन तत्त्वोनो अभाव थई जाय छे; शरीरादि अजीवनो तो जीवमां अभाव ज हतो. आ रीते आमां नवे
तत्त्वोनो स्वीकार आवी जाय छे तेमज तेमांथी उपादेय तत्त्वोनो अंगीकार तथा हेय तत्त्वोनो त्याग पण थई जाय छे.
–आनुं नाम धर्म छे.
शुद्धद्रव्यस्वभावनी द्रष्टिथी जुओ तो आ भगवान आत्मा अनादिथी कदी विकारपणे वर्त्यो ज नथी. एक
समयनी पर्यायना विकारने ज आखो आत्मा मानी लेवो ते तो अशुद्धद्रष्टि–क्षणिकद्रष्टि थई गई. शुद्धद्रव्य स्वभावने
जाणतां तेनी सन्मुख थईने पर्याय पण शुद्ध थई जाय छे; ए रीते शुद्धद्रव्य अने शुद्धपर्यायनी एकतारूप आत्मा
प्रतीतमां आवे ते सम्यक्श्रद्धा छे. जो एकला द्रव्यने शुद्ध माने अने द्रव्य साथे शुद्ध पर्याय न माने–तो ते वेदांत जेवुं
थई गयुं; तेणे खरेखर शुद्धद्रव्यने पण जाण्युं नथी. शुद्धपर्याय वगर शुद्धद्रव्यने जाण्युं कोणे? शुद्धद्रव्यने जाणतां पर्याय
पोते शुद्ध न थाय एम बने नहि; केम के द्रव्य साथे पर्यायनी एकता थया वगर तेनुं यथार्थ ज्ञान थतुं ज नथी. आ
रीते, ‘विकारनो आत्मामां अभाव छे’ एम स्वीकारनार शुद्धद्रव्यनी द्रष्टिथी निर्मळ पर्यायरूपे परिणमीने ते प्रमाणे
स्वीकारे छे. शुद्धद्रव्यना आश्रये पर्यायमां शुद्धता प्रगटया वगर विकारना अभावनो यथार्थ स्वीकार थई शके नहि,–
आ खास रहस्य छे.
चैतन्यस्वरूप आत्मामां कर्मनो अने विकारनो अभाव छे; कर्म अने विकारना अभावस्वरूप आत्मस्वभावनी
जेने द्रष्टि थई छे तेने एवो भय नथी रहेतो के कर्म मने हेरान करशे, अथवा एवो संदेह नथी पडतो के मारा
आत्मामांथी विकार आवशे. शुद्ध स्वभावनी सन्मुखताना जोरे ते निःशंक अने निर्भय वर्ते छे.
“वर्तमानमां तो अमने मिथ्यात्वादि नथी पण भविष्यमां थाय तो कोण जाणे!”–एम जेने शंका छे तेने तो
वर्तमानमां ज मिथ्याद्रष्टि जाणवो. अरे भाई! शुं मिथ्यात्वादि भावो तारा स्वभावमां भर्या छे? स्वभावमां तेनो
अभाव छे. जो आवा स्वभाव उपर नजर होय तो मिथ्यात्वादि थवानी शंका पडे ज नहि. स्वभावना जोरे वर्तमानमां
मिथ्यात्वादिनो अभाव थयो ने त्रिकाळमां पण तेनो अभाव ज छे. रागादिना अभावरूप स्वभाव छे एटले तेमांथी
रागादि आवे, ए वात ज रहेती नथी.
आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ परभावना अपोहनस्वरूप ज छे, परभावनो तेनामां अभाव ज छे. राग
छे ने तेनो अभाव करुं–एवुं पण स्वभावद्रष्टिमां नथी. पर्यायमां रागनो अभाव थतो जाय छे खरो, परंतु
‘रागनो थोडोक अभाव छे ने तद्न अभाव करुं’–एवा भेदनुं अवलंबन ज्ञानीनी द्रष्टिमां नथी; ज्ञानीनी
द्रष्टि तो शुद्ध एकरूप स्वभाव उपर ज छे,–के जेमां रागादिनो सदा अभाव ज छे. आ रीते रागना
अभावरूप चिदानंद स्वभाव उपर द्रष्टि ते ज रागना अभावनो उपाय छे. चोथा गुणस्थाने स्वभावबुद्धिमां
समकितीने आखा संसारनो अभाव थई गयो छे. आवा स्वभावने श्रद्धाज्ञानमां लईने तेनो आश्रय कर्यो
त्यां पर्यायमां पण रागनो अभाव ज छे. आ रीते द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां रागनो अभाव ज छे ने
अभाव ज रहेशे.
‘सिद्धने केम विकार थतो नथी?’–तो कहे छे के आत्माना स्वभावमां एवी अभाव–अभावशक्ति छे के
विकारनो पोतामां अभाव ज राखे; ते स्वभाव सिद्ध भगवानने खीली गयो छे तेथी तेमने विकार थतो नथी. ‘कर्म
नथी माटे सिद्धने विकार थतो नथी’ एम कहेवुं ते तो निमित्तनुं कथन छे. खरेखर तो विकाररूप थवानो आत्मानो
स्वभाव ज नथी, माटे सिद्धने विकार थतो नथी.
आत्मानी एवी शक्ति छे के तेना ज्ञानगुणनी पर्याय सदाय ज्ञानरूप ज थाय. श्रद्धानुं परिणमन श्रद्धा–