Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः१८ः आत्मधर्मः १७०
(११प) प्रश्नः– व्यवहारना शुभरागवडे आत्मानुं ग्रहण केम न थाय?
उत्तरः– रागथी आत्मानुं ग्रहण नथी थतुं, केमके रागथी तो आत्माने जुदो कर्यो छे; तो जेनाथी आत्माने जुदो कर्यो
तेना वडे आत्मानुं ग्रहण केम थाय? मोक्षरूपी कार्यमां आत्माने भिन्न साधननो अभाव छे–ए वात पहेलां
ज बतावी गया छीए.
(११६) प्रश्नः– पंचमहाव्रत के अठ्ठावीस मूळगुणनो शुभराग ते स्थिरतानुं कारण छे के नहि?
उत्तरः– ना; शुभराग ते कारण ने स्वरूपस्थिरता तेनुं कार्य एम केम होय? शुभराग तो बंधनुं कारण छे ने स्वरूप–
स्थिरता तो मोक्षनुं कारण छे; तो जे बंधनुं कारण होय ते मोक्षनुं कारण केम थाय?–न ज थाय; माटे शुभराग
ते स्वरूपस्थिरतानुं कारण नथी.
(११७) प्रश्नः– ‘आत्माने ग्रहवो’ एटले शुं?
उत्तरः– आत्माने ग्रहवो एटले आत्मामां स्थिर थवुं. जेम ज्ञानने अंतर्मुख करीने प्रज्ञावडे भेदज्ञान कर्युं, तेम ज्ञानने
अंतर्मुख करीने एकाग्र थवुं,–आ रीते प्रज्ञावडे ज आत्मानुं ग्रहण थाय छे.
(११८) प्रश्नः– आत्माने परथी भिन्न करवानुं साधन, अने परथी भिन्न आत्माने ग्रहण करवानुं साधन,–ए बंने
एक छे के जुदा?
उत्तरः– बंने एक ज छे; जेम आत्माने भिन्न करवामां प्रज्ञा ज एक साधन हतुं, तेम शुद्ध आत्माने ग्रहण करवामां
पण प्रज्ञा ज एक साधन छे. भिन्न करवामां अने ग्रहण करवामां करणो–साधनो जुदां नथी.
(११९) प्रश्नः– प्रभो! प्रज्ञावडे शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवानुं आपे कह्युं, तो आ आत्माने प्रज्ञावडे कई रीते ग्रहण
करवो?
उत्तरः– हे भव्य! सांभळ! नीचे प्रमाणे प्रज्ञावडे आत्माने ग्रहवो –
प्रज्ञाथी ग्रहवो निश्चये
जे चेतनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ
मुज थकी पर जाणवुं. २९७
नियत स्वलक्षणने अवलंबनारी प्रज्ञावडे जुदो करवामां आवेलो जे चेतक, ते आ हुं छुं; अने अन्य
स्वलक्षणोथी लक्ष्य जे आ बाकीना व्यवहाररूप भावो छे ते बधाय, चेतकपणारूपी व्यापकना व्याप्य नहि थता
होवाथी, माराथी अत्यंत भिन्न छे.–आ प्रमाणे प्रज्ञावडे आत्मामां अनुभव करवो. आ ज प्रज्ञावडे आत्माने
ग्रहण करवानी रीत छे. आ सिवाय बीजी कोई रीते (–रागादि व्यवहार भावोना अवलंबने) आत्मानुं
ग्रहण थई शकतुं नथी.
(१२०) प्रश्नः– व्यवहाररूप भावो छे ते बधाय केवा छे?
उत्तरः– व्यवहाररूप भावो चैतन्यलक्षणथी भिन्न छे.
(१२१) प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टिनो व्यवहार केवो छे?
उत्तरः– सम्यग्द्रष्टिनो शुभरागरूप व्यवहार ते पण चैतन्यलक्षणथी भिन्न छे, ने ते बंधनुं कारण छे.
(१२२) प्रश्नः– शुभरागरूप व्यवहारथी शुं लक्ष्य थाय छे?
उत्तरः– शुभरागरूप व्यवहारथी बंध लक्ष्य थाय छे, तेनाथी आत्मा लक्षित नथी थतो.
(१२३) प्रश्नः– प्रज्ञा कोने अवलंबनारी छे?
उत्तरः– प्रज्ञा आत्माना चैतन्यलक्षणने ज अवलंबनारी छे, रागादिने अवलंबनारी नथी.
(१२४) प्रश्नः– व्यवहारना अवलंबनवडे आत्मानुं ग्रहण केम थतुं नथी.
उत्तरः– केमके व्यवहार तो बंधमार्गने अनुसरे छे, तेथी ते व्यवहारना अवलंबनवडे तो बंधनुं ज ग्रहण थाय छे, पण
आत्मानुं ग्रहण नथी थतुं.
(१२प) प्रश्नः– रागादि व्यवहाररूप भावोने अने आत्मस्वभावने केवो संबंध छे?
उत्तरः– आत्माना स्वभावमां ते रागादि व्यवहाररूप भावोनो अत्यंत अभाव छे.
(१२६) प्रश्नः– न्याय शास्त्रोमां जे प्राक्–प्रध्वंस आदि चार प्रकारना अभाव कह्या छे तेमांथी आ ‘अभाव’ कया
प्रकारमां आवे?
उत्तरः– ते चारे प्रकारना अभावमां आ ‘अभाव’ न आवे, केमके आ तो ते चारे प्रकारथी जुदो, अध्यात्मद्रष्टिए
‘अभाव’ छे. अध्यात्मद्रष्टिए आत्माना शुद्ध स्वभावमां व्यवहाररूप भावो