Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 20 of 25

background image
मागशरः २४८४ः१९ः
नथी, अने व्यवहाररूप भावोमां आत्मानो स्वभाव नथी; ए रीते तेमनो एकबीजामां अभाव छे.
(१२७) प्रश्नः– आत्मानी मुक्ति केम थाय छे?
उत्तरः– आत्मा अने बंधनुं भेदज्ञान करीने, शुद्ध आत्माना ग्रहणथी अने बंधना त्यागथी आत्मानी मुक्ति थाय छे.
(१२८) प्रश्नः– मोक्षार्थीए शुं जाणवुं?
उत्तरः– मोक्षार्थीए एम जाणवुं के एक चैतन्यमय भाव ज हुं छुं ने ते ज मारे ग्रहण करवा योग्य छे; ए सिवाय बीजा
रागादि भाव छे ते परना भावो छे, ते मारा स्वभावना भावो नथी तेथी ते सर्वथा छोडवा योग्य छे.
(१२९) प्रश्नः– शुभराग पण परनो भाव छे?
उत्तरः– हा, केम के शुद्ध चैतन्य स्वभावमां ते भाव नथी, माटे ते परनो भाव छे. शुद्ध चैतन्यस्वभावमां जे अभेद छे
ते ज आत्मानो स्व–भाव छे.
(१३०) प्रश्नः– शुद्ध चिन्मयभावने ज ‘ग्रहण करवो’ एटले शुं?
उत्तरः– ग्रहण करवो एटले अनुभववो, तेमां एकाग्र थवुं.
(१३१) प्रश्नः– व्यवहार रत्नत्रयनो शुभ राग छे ते केवो छे?
उत्तरः– मोक्षने माटे व्यवहार रत्नत्रयनो शुभ राग पण सर्वथा हेय छे. आचार्य भगवान स्पष्ट कहे छे के–
एकश्चित्तश्चिन्मय एव भावो
भावाः परे ये किल ते परेषाम्।
ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो
भावाः परे सर्वतः एव हेयाः।।१८४।।
अर्थात् चैतन्यनो तो एक चिन्मय ज भाव छे, जे बीजा भावो छे ते खरेखर परना भावो छे; माटे चिन्मय
भाव ज ग्रहण करवा योग्य छे, बीजा भावो सर्वथा छोडवा योग्य छे.
(१३२) प्रश्नः– बीजा भावो सर्वथा छोडवा योग्य केम छे?
उत्तरः– केम के ज्यां अंतरमां चैतन्यस्वभावमां सन्मुख थईने एकाग्र थयो त्यां मोक्षार्थीने शुद्ध चैतन्यस्वभाव सिवाय
समस्त परभावोनुं अवलंबन छूटी ज गयुं छे; माटे ते समस्त परभावो सर्वथा हेय छे. अंतर्मुख थतां
बहिर्मुखभावो सहेजे छूटी ज जाय छे. ज्यां अंतर्मुख थईने शुद्ध चैतन्यभावनुं ग्रहण कर्युं त्यां बहिर्मुख
परभावोनुं ग्रहण केम होय? अंतर्मुख थईने स्वभावनुं ग्रहण करतां बहिर्मुख परभावो छूटी ज जाय छे; माटे
मोक्षार्थीने ते परभावो सर्वथा हेय ज छे, ने एक शुद्ध चैतन्य स्वभाव ज सर्वथा उपादेय छे,–एम जाणवुं.
सौ भाव जे परकीय जाणे,
शुद्ध जाणे आत्मने,
ते कोण ज्ञानी ‘मारुं आ’
एवुं वचन बोले खरे? (३००)
अहो! भेदज्ञान वडे जेणे शुद्ध आत्माने ज पोतानो जाण्यो छे ने बाकीना समस्त भावोने पोताथी भिन्न–पारका
जाण्या छे, ते ज्ञानी परभावोने पोताना स्वभावमां केम भेळवे? रागादिथी ते लाभ केम माने?–न ज माने.
(१३४) प्रश्नः– एनुं द्रष्टांत शुं छे?
उत्तरः– जेम आर्य माणस के जेने स्वप्नेय मांसभक्षणनो भाव न होय ते, “मांसभक्षण करवा जेवुं छे”–एम वाणीमां
केम बोले? न ज बोले; तेम जेणे रागादि परभावोथी भिन्न आत्माना शुद्ध स्वभावनो अनुभव कर्यो छे
एवां ज्ञानी धर्मात्मा रागादि परभावोने पोताना स्वभावमां केम भेळवे?–न ज भेळवे; अने ते ज्ञानीना
वचनमां ‘रागथी लाभ थाय’ एवुं प्रतिपादन पण केम आवे?–न ज आवे.
(१३प) प्रश्नः– परभावो आत्माना केम नथी?
उत्तरः– केमके निश्चयथी आत्माना स्वभावने अने रागादि परभावोने स्व–स्वामीसंबंधनो असंभव छे; माटे शुद्ध
चैतन्यभाव ज आत्मानो स्वकीय भाव