Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः२०ः आत्मधर्मः १७०
होवाथी उपादेय छे; अने बाकीना समस्त परभावो छोडवा योग्य छे,–एवो सिद्धांत छे.
(१३६) प्रश्नः– आत्माना शुद्ध चैतन्य स्वभावने अने रागादि परभावने खरेखर स्व–स्वामी–संबंध नथी एम कह्युं,
तो रागादिनो स्वामी कोण छे?
उत्तरः– रागादिनो स्वामी अज्ञानी छे.
(१३७) प्रश्नः– अत्यारे शेना दिवसो चाले छे? (श्रावण वद आठम.)
उत्तरः– अत्यारे “सोलह–भावना” ना दिवसो चाले छे. आ दिवसोमां–
“दरशविशुद्धिभावना भाय
सोलह तीर्थंकर पद पाय..परमगुरु हो..
जय जय नाथ..परम गुरु हो..
–इत्यादि पूजा भणे छे.
(१३८) प्रश्नः– सोलह कारण भावना ते तीर्थंकरप्रकृति बंधावानुं कारण छे,–तो ते भाव केवो छे?
उत्तरः– ते पण बंधनुं कारण छे, तेथी बंधभाव छे, ते स्वभाव नथी. जे बंधनुं कारण होय ते स्वभाव केम होय? अने
ते उपादेय पण केम होय? (दर्शनविशुद्धि वगेरे संबंधी जे शुभ विकल्प छे तेने ज अहीं बंधनुं कारण समजवुं;
शुद्धताने नहि.)
जो के दर्शनविशुद्धिभावना वगेरे १६ भावना वास्तविकपणे सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, अने सम्यग्द्रष्टिने ज
तीर्थंकरप्रकृति बंधाय छे; छतां सम्यग्द्रष्टि तो पोताना एक शुद्ध चैतन्यभावने ज उपादेय जाणे छे, तीर्थंकरप्रकृतिना
बंधना कारणरूप शुभरागने पण ते खरेखर उपादेय जाणता नथी. सोळ भावनाना शुभरागने ज धर्म मानीने जे
उपादेय माने ते तो मिथ्याद्रष्टि होय छे ने मिथ्याद्रष्टिने वास्तविक सोळ भावना होती नथी.
(१३९) प्रश्नः– सम्यग्ज्ञानी शुं करे छे?
उत्तरः– जे सम्यग्ज्ञानी छे ते एक शुद्ध चैतन्यभावने ज पोतानो जाणीने ग्रहण करे छे, अने बाकीना समस्त परद्रव्य
तथा परभावोने पोताना स्वभावमां एकपणे मानतो नथी, पण पोताथी भिन्न जाणीने छोडे छे.
(१४०) प्रश्नः– मोक्षने माटे केवो सिद्धांत छे?
उत्तरः– मोक्षार्थीए सर्वथा एक चैतन्यभाव ज ग्रहण करवा जेवो छे, ने बाकीना समस्त भावो छोडवा जेवा छे,–
आवो सिद्धांत छे.
(१४१) प्रश्नः– मोक्षार्थी जीवोए कया सिद्धांतनुं सेवन करवा जेवुं छे?
उत्तरः– मोक्षार्थीओ आ सिद्धांतनुं सेवन करो के–‘हुं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं; अने आ जे
भिन्नलक्षणवाळा विविध प्रकारना रागादि भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी, कारण के ते बधाय मने परद्रव्य
छे.’–आ बाबतमां कलश कह्यो छे के–
सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां
शुद्धचिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्।
एत ये तु समुल्लसंति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा–
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्र अपि।।१८५।।
(१४२) प्रश्नः– मोक्षने साधनार जीव केवो होय?
उत्तरः– मोक्षने साधनार जीव निःशंक होय, अने उल्लासित वीर्यवान होय; अल्पकाळमां परम आनंदस्वरूप मोक्षपद साधवानुं
छे तेथी तेना परिणाम उल्लासमय होय छे. अनंतभवमां मारे हवे रखडवुं पडशे, एवी शंका तेने होती नथी.
(१४३) प्रश्नः– साधक सम्यग्द्रष्टिने भवनी शंका केम होती नथी?
उत्तरः– केम के, शुद्ध चैतन्य स्वभाव तेनी द्रष्टिमां आवी गयो छे, ते स्वभावमां भव नथी तेथी तेने भवनी शंका होती नथी.
(१४४) प्रश्नः– बंधन थवानी शंका कोने पडे?
उत्तरः– जे जीव अपराधी होय तेने.
(१४प) प्रश्नः– अपराधी कोण छे?
उत्तरः– जे जीव पारका द्रव्यने पोतानुं मानीने तेनुं ग्रहण करे छे ते अपराधी छे; अथवा परथी भिन्न शुद्ध आत्माना
अनुभवरूप आराधनाथी जे रहित छे ते अपराधी छे.
(१४६) प्रश्नः– निरपराधी कोण छे?