Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः२२ः आत्मधर्मः १७०
– परम शांति दातारी –
अध्यात्म भावना
भगवानश्री पूज्यपाद स्वामी रचित ‘समाधिशतक’ उपर परमपूज्य सद्गुरुदेवश्री
कानजीस्वामीना अध्यात्मभावना–भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(वीर सं. २४८२ वैशाख वद १२–१३ समाधिशतक गा. ८–९)
अंतरमां मारो आत्मा ज्ञान–आनंदस्वरूप अतीन्द्रिय भगवान छे, एम जे नथी जाणतो ते मूढ–बहिरात्मा
बहारमां जड शरीरने ज आत्मा माने छे; आ मनुष्यदेहमां रहेलो आत्मा तो मनुष्यदेहथी जुदो ज्ञानस्वरूप छे–तेने न
ओळखतां ‘आत्मा ज मनुष्य छे’ एम शरीरने ज आत्मा मानी रह्यो छे. जाणनार स्वरूप आत्माने जाणतो नथी तेने
धर्म बिलकुल थतो नथी.
हाथीनुं शरीर जुए त्यां ‘आ जीव हाथी छे’ एम आत्माने ज हाथी वगेरे तिर्यंचरूपे माने छे; देव शरीरमां
आत्मा रह्यो त्यां, आत्मा ज जाणे के देवशरीररूपे थई गयो–एम अज्ञानी माने छे; अने ए ज प्रमाणे नारक शरीरमां
रहेला आत्माने नारकी माने छे, पण आत्मा तो अरूपी, ज्ञान–आनंदस्वरूप छे, एम अज्ञानी जाणतो नथी. आत्मा
तो देहथी तद्न भिन्न छे, जुदा जुदा शरीरो धारण करवा छतां आत्मा पोताना चैतन्यस्वरूपे ज रह्यो छे,
चैतन्यस्वरूपथी छूटीने जडरूप कदी थयो ज नथी.
आत्मा पोते तो ज्ञानस्वरूप ज छे, ते कांई मनुष्य वगेरे देहरूपे थयो नथी. मनुष्य–तिर्यंच–देव–नारक एवां
नाम तो आ शरीरना संयोगथी छे; कर्मनी उपाधिथी रहित आत्माना स्वरूपने जुओ तो ते ज्ञान–आनंद स्वरूप ज छे;
मनुष्य वगेरे शरीर के तेनी बोलवा–चालवानी क्रिया ते कांई आत्मा नथी, ते तो अचेतन जडनी रचना छे. देहथी
भिन्न अनंत चैतन्यशक्ति संपन्न अरूपी आत्मा छे ते आंख वगेरे इन्द्रियोथी देखातो नथी. ते तो अंतरना
अतीन्द्रिय स्वसंवेदनथी ज जणाय छे. आवा पोताना आत्माने अनादि–काळथी जीवे जाण्यो नथी ने देहमां ज
पोतापणुं मान्युं छे तेथी चार गतिमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. आत्मा शुं छे ते जाण्या वगर धर्मी नाम धरावीने पण
देहादिनी क्रियाने धर्म मानीने मूढ जीव संसारमां ज रखडे छे. हुं तो अनंतज्ञान–आनंद स्वरूप छुं, देहथी पार,
इन्द्रियोथी पार, रागथी पार, ज्ञानथी ज स्वसंवेद्य छुं; पोताना स्वसंवेदन वगर बीजा कोई उपायथी जणाय एवो
आत्मा नथी. पोते पोताथी ज अनुभवमां आवे एवो आत्मा छे. आवो आत्मा ज आदर करवा योग्य छे, तेने ज
पोतानो करीने बहुमान करवा योग्य छे. देहादिक पोताथी भिन्न छे, ते रूपे आत्मा नथी. अज्ञानी जड शरीरने ज देखे
छे ने तेने ज आत्मा माने छे, पण जडथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणतो नथी,–तेथी ते बहिरात्मा छे. देहादिथी
भिन्न चिदानंदस्वरूप श्रीगुरु बतावे छे, ते स्वरूपने जे समजे तेने श्रीगुरु प्रत्ये बहुमाननो यथार्थ भाव आवे के
अहो! चिदानंदस्वरूप आत्मा श्रीगुरुए मने परम अनुग्रह करीने बताव्यो. पोताने स्वसंवेदन थाय त्यारे ज्ञानी
गुरुनी खरी ओळखाण थाय अने तेमना प्रत्ये खरी भक्ति आवे. एकला शुभरागवडे पण चिदानंदस्वरूप आत्मा
ओळखाय तेवो नथी, अने पोताना आत्माने ओळख्या वगर सामा आत्मानी ओळखाण पण थाय नहि.
सम्यग्द्रष्टि–अंतरात्मा पोताना आत्माने देहादिथी भिन्न एवो जाणे छे के हुं तो अनंत ज्ञान अने आनंद
शक्तिथी भरेलो छुं, मारा ज्ञानानंदस्वरूपमां हुं अचल छुं, मारा ज्ञानानंदस्वरूपथी हुं कदी च्यूत थतो नथी; आवा