
ओळखतां ‘आत्मा ज मनुष्य छे’ एम शरीरने ज आत्मा मानी रह्यो छे. जाणनार स्वरूप आत्माने जाणतो नथी तेने
धर्म बिलकुल थतो नथी.
रहेला आत्माने नारकी माने छे, पण आत्मा तो अरूपी, ज्ञान–आनंदस्वरूप छे, एम अज्ञानी जाणतो नथी. आत्मा
तो देहथी तद्न भिन्न छे, जुदा जुदा शरीरो धारण करवा छतां आत्मा पोताना चैतन्यस्वरूपे ज रह्यो छे,
चैतन्यस्वरूपथी छूटीने जडरूप कदी थयो ज नथी.
मनुष्य वगेरे शरीर के तेनी बोलवा–चालवानी क्रिया ते कांई आत्मा नथी, ते तो अचेतन जडनी रचना छे. देहथी
भिन्न अनंत चैतन्यशक्ति संपन्न अरूपी आत्मा छे ते आंख वगेरे इन्द्रियोथी देखातो नथी. ते तो अंतरना
अतीन्द्रिय स्वसंवेदनथी ज जणाय छे. आवा पोताना आत्माने अनादि–काळथी जीवे जाण्यो नथी ने देहमां ज
पोतापणुं मान्युं छे तेथी चार गतिमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. आत्मा शुं छे ते जाण्या वगर धर्मी नाम धरावीने पण
देहादिनी क्रियाने धर्म मानीने मूढ जीव संसारमां ज रखडे छे. हुं तो अनंतज्ञान–आनंद स्वरूप छुं, देहथी पार,
इन्द्रियोथी पार, रागथी पार, ज्ञानथी ज स्वसंवेद्य छुं; पोताना स्वसंवेदन वगर बीजा कोई उपायथी जणाय एवो
आत्मा नथी. पोते पोताथी ज अनुभवमां आवे एवो आत्मा छे. आवो आत्मा ज आदर करवा योग्य छे, तेने ज
पोतानो करीने बहुमान करवा योग्य छे. देहादिक पोताथी भिन्न छे, ते रूपे आत्मा नथी. अज्ञानी जड शरीरने ज देखे
छे ने तेने ज आत्मा माने छे, पण जडथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणतो नथी,–तेथी ते बहिरात्मा छे. देहादिथी
भिन्न चिदानंदस्वरूप श्रीगुरु बतावे छे, ते स्वरूपने जे समजे तेने श्रीगुरु प्रत्ये बहुमाननो यथार्थ भाव आवे के
अहो! चिदानंदस्वरूप आत्मा श्रीगुरुए मने परम अनुग्रह करीने बताव्यो. पोताने स्वसंवेदन थाय त्यारे ज्ञानी
गुरुनी खरी ओळखाण थाय अने तेमना प्रत्ये खरी भक्ति आवे. एकला शुभरागवडे पण चिदानंदस्वरूप आत्मा
ओळखाय तेवो नथी, अने पोताना आत्माने ओळख्या वगर सामा आत्मानी ओळखाण पण थाय नहि.