Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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मागशरः २४८४ः २३ः
ज्ञानानंदस्वरूपनी जे सम्यक्श्रद्धा अने ज्ञान थयुं तेनाथी डगाववा हवे जगतनी कोई प्रतिकूळता समर्थ नथी;
ज्ञानस्वरूपना आश्रये जे सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान थया ते हवे आत्माना ज आश्रये अचल टकी रहे छे, कोई संयोगना
कारणे श्रद्धा–ज्ञान चलायमान थता नथी. आवा स्वसंवेदनथी आत्माना वास्तविकस्वरूपनी ओळखाण करवी ते
बहिरात्मपणाथी छूटवानो ने अंतरात्मा–धर्मात्मा–थवानो उपाय छे अने पछी आत्माना चैतन्यस्वभावमां ज लीन
थईने पोते परमात्मा बनी जाय छे.
आत्मा चैतन्यस्वरूप छे, ने आ देह तो जड छे. आत्मा अने शरीर एक जग्याए साथे रहेला होवा छतां
बंनेना पोतपोताना भावो जुदा छे, एटले भावे भिन्नता छे, जेम एक कषाई जेवो जीव अने बीजो सज्जन–ए बंने
एक घरमां भेगा रह्या होय पण बंनेना भावो जुदा ज छे. तेम आ लोकमां आत्मा अने जड शरीरादि एक क्षेत्र रह्या
होवा छतां बंनेना भावो तद्न जुदा छे. आत्मा पोताना ज्ञान–आनंद वगेरे भावमां रह्यो छे, ने कर्म–शरीरादि तो
पोताना अजीव–जड भावमां रह्या छे; बंनेनी एकता कदी थई ज नथी. आवी अत्यंत भिन्नता होवा छतां मूढ आत्मा
जडथी भिन्न पोताना स्वरूपने जाणतो नथी ने देहादिक ज हुं छुं–एम मानीने मिथ्याभावमां प्रवर्ते छे,–ते ज
संसारदुःखनुं कारण छे. शुद्धज्ञान ने आनंद सिवाय बीजुं बधुंय मारा स्वरूपथी बाह्य छे–एम अंतरात्मा पोताना
आत्माने समस्त परभावोथी भिन्न शुद्धज्ञानानंदस्वरूपे अनुभवे छे. पर्यायमां रागादि उपाधिभावो छे तेने जाणे छे,
पण ते रागादिरूप अशुद्ध स्वरूप ज आत्मा थई गयो एम नथी मानता; रागथी पण पार ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छे
तेने अंर्तद्रष्टिथी देखे छे,–ते अंतरात्मा छे.
अरे भाई! तारा आत्मानुं वास्तविकस्वरूप शुं छे तेने एकवार जाण तो खरो! आ मनुष्यदेह तो स्मशानमां
बळीने भस्म थशे; शरीर तो जडपरमाणुओ भेगा थईने बन्युं छे, ते आत्मा नथी. आत्मा तो अनादि अनंत,
ज्ञानआनंदस्वरूपे अचल रहेनार छे. पुण्य पापनी क्षणिक वृत्तिओ आवे ने जाय तेटलो आत्मा नथी. देहथी पार,
रागथी पार, अंतरमां ज्ञानादि अनंतगुणस्वरूप पोतानो आत्मा छे, तेनी साथे एकता करीने तेना आनंदनुं ज्यां
स्वसंवेदन कर्युं त्यां बाह्य पदार्थो अंश मात्र पोताना भासता नथी, ने तेमां क्यांय सुखबुद्धि रहेती नथी. चैतन्यनुं सुख
चैतन्यमां ज छे–एनो स्वाद जाण्यो त्यां संयोगनी भावना रहेती नथी. अज्ञानीने अंतरना चैतन्यना आनंदना
स्वादनी खबर नथी तेथी बाह्य संयोगमां सुख मानीने ते संयोगनी ज भावना भावे छे, ने संयोगो मेळवीने तेना
भोगवटा वडे सुख लेवा मांगे छे; पण जड संयोगमांथी अनंतकाळेय सुख मळे तेम नथी, केमके चैतन्यनुं सुख बहारमां
नथी. अज्ञानी जीव बाह्य संयोग तरफना राग–द्वेष, हर्ष–शोकनुं ज वेदन करे छे, पण संयोगथी ने रागथी पार
असंयोगी चैतन्य स्वभावना अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन तेने नथी. अहीं पूज्यपादस्वामी आत्मानुं स्वरूप बतावे छे के
हे जीव! तारो आत्मा मनुष्यादि शरीररूप नथी, अनंत ज्ञान–आनंद शक्तिस्वरूप तारो आत्मा छे, तेने अंतरमां
स्वसंवेदनथी तुं जाण.
आत्मधर्म अंक १६९ (कारतक)मां सुधारो
पानुं–कोलम–लाईनअशुद्धशुद्ध
६–१–२३, २४मुख्य करी भने स्वभावनीमुख्य करीने स्वभावनी
६–२–७पण तो राग प्रत्नेपण ते राग प्रत्ये
७–१–११विकल्पने पछीविकल्पने पण
८–१–२१रत्नत्रय मोक्षमार्गरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग
१०–२–२३नथी पर्यायनवी पर्याय
११–१–३०ए पर्यायनुं परिवर्तनए रीते पर्यायनुं परिवर्तन
११–२–पउत्पादन थाय छेउत्पाद थाय छे
१३–१–९, १०मारा अशुद्धतामारा स्वभावमांथी अशुद्धता
१प–१–१०अने अभावने भावअने अभावनो भाव
१७–१–२२सिद्धा षे किल केचनसिद्धा ये किल केचन
१९–१–७मोक्ष केम थाय?मोक्ष केम न थाय?