ः१०ः आत्मधर्मः १७१
प्रत्ये (–पंच पररमेष्ठी प्रत्ये) परमभक्ति–विनय–उत्साह–बहुमाननो भाव जरूर आवे छे.–छतांय तेमां जे राग छे ते
कांई तात्पर्य नथी, ते कांई मोक्षमार्ग नथी. मोक्षमार्ग तो वीतरागभाव ज छे–ए नियम छे, अने ए ज मोक्षेच्छुए
कर्तव्य छे.
चंदनवृक्षनी सुगंधी छाया जेवी जे वीतरागता–परमशांति,–तेमां राग ते तो अग्नि जेवो बळतरा करनारो छे.
–मोक्षेच्छुए ते कर्तव्य केम होय? माटे हे मोक्षाभिलाषी महाजनो! हे उत्तम पुरुषो! क्यांय पण (–अर्हंत–सिद्ध प्रत्ये
पण) राग किंचित् कर्तव्य नथी–एम समजो..आम समजीने जे मोक्षार्थी महाजन सघळाय प्रत्येना (–अर्हंत–सिद्ध
प्रत्येना पण) रागने छोडीने स्वरूपमां लीनता वडे साक्षात् वीतरागभावरूप परिणमे छे, ते भव्य महाजन
वीतरागभाव वडे तुरत ज भवसागरने तरी जाय छे..ने परमानंदरूप मोक्षपदने पामे छे.
आवो छे..वीतरागी मोक्षमार्ग!
* * *
अहा! भावलिंगी संत, जेओ वनजंगलमां वसे छे, जेने देह उपर वस्त्रनो ताणो पण नथी, ने आत्माना
आनंदमां झूलता झूलता जेओ मोक्षमार्गे हाल्या जाय छे, एवा मुनिने ‘महाजन’ तरीके संबोधीने कहे छे के–
हे मुनि! हे मोक्षार्थी महाजन! साक्षात् मोक्षामार्ग तो वीतरागभाव ज छे, ने ते वीतरागता ज तारे कर्तव्य छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान उपरांत चारित्र वडे अंतरमां जे अमृतसागर ऊछळ्यो छे तेमां लीनता ज करवा जेवी छे...तेमांथी
जराय बहार नीकळवा जेवुं नथी, एटले जराय राग कर्तव्य नथी.
जेम, होडीमां बेसीने ‘सिद्धवरकूट’ जतां वच्चे नदीनो ‘वळांक’ आवतां तरंगोनो खळभळाट ऊठतो हतो..
तेम रत्नत्रयरूपी नावमां बेसीने सिद्धपद तरफ जई रहेला मोक्षमार्गी मुनिवरोनी परिणतिरूपी नदीनो प्रवाह मोक्ष
तरफ जई रह्यो छे तेमां वच्चे रागरूपी वळांक आवतां ककळाट थाय छे.
अहा..वनवासी वीतरागी संतो वनना वाघ जेवा निर्भय हता..दुनियाथी निर्भय संतोए बेधडक वीतरागमार्ग
प्रसिद्ध कर्यो छे. लोको मानशे के नहि माने तेनी एने दरकार नथी. जे जीव मोक्षेच्छु हशेे ते आवा मार्गे आव्या वगर
रहेशे नहि. गदगद थईने गुरुदेव कहे छे के–अरे! आवो स्पष्ट वीतरागी मार्ग संतोए खुल्लो मूकयो छे..छतां लोको
तेनो विरोध करे छे!! ! शुं थाय? सीमंधर परमात्मा तो विदेहक्षेत्रे बेठा बेठा बधुं जोई रह्या छे..कुंदकुंदाचार्य पोते पण
जाणे छे के अत्यारे भरतक्षेत्रे शासनमां आम चाली रह्युं छे..पण..शुं थाय? आवो ज काळ! ने जीवोनी एवी ज
लायकात!–छतां आ लोको भाग्यशाळी के होंसथी आवी वात सांभळे छे.
शुद्ध चिदानंदस्वरूप आत्मा आनंदनो समुद्र छे; जेम रत्नो मेळववा माटे समुद्रने अवगाहीने तेमां ऊंडा उतरवुं
पडे छे, तेम मोक्षार्थी मुनिवरो आनंदना समुद्रमां ऊंडा ऊतरीने–अंतर्मुख थईने–सम्यग्रत्नत्रय काढीने तेना वडे शीघ्र
निर्वाण पामे छे. जुओ, चैतन्यसमुद्रने जे अवगाहे–तेमां ऊतरे ते ज शीघ्र मोक्ष पामे छे. बहिर्मुख रागमां रहे तेने
मोक्ष थतो नथी. ज्यां सुधी राग रहेशे त्यां सुधी तो कलेशनी परंपरा चालु रहेशे, ने राग टळशे त्यारे साक्षात् मोक्ष
थशे; माटे हे भव्य! एक वार आवी वीतरागतानी होंस लावीने उत्साहथी तेनी हा तो पाड.
जराक राग तो वर्ते छे छतां आचार्यदेव कहे छे के “जयवंत वर्तो वीतरागता!” पोतानी भूमिका साथे
मेळवीने कहे छे के अरे, आ राग आव्यो तेनो जय न हो पण क्षय हो. वीतरागता ज जयवंत वर्तो. राग वडे मारो
जय हुं नथी मानतो; वीतरागता ज साक्षात् मोक्षनुं कारण छे, माटे ते जयवंत वर्तो!
मोक्षनुं कारण तो परम वीतरागता छे, ने ते वीतरागतामां ज आ शास्त्रनुं समस्त हृदय रहेलुं छे अहा!
जुओ, मोक्षमार्गी मुनिओनुं हृदय बोले छे...आ संतो शास्त्रनुं हृदय खोले छे. अमे मोक्षामार्गी छीए, अमारा हृदयमां
परम वीतरागतानो वास छे, ने शास्त्रना हृदयमां पण परम वीतरागता ज भरेली छे. परम वीतरागता सिवाय बीजुं
तात्पर्य काढे (–व्यवहारना रागने तात्पर्य माने) तो ते जीव शास्त्रना हृदयने समज्यो ज नथी. राग ते शास्त्रनुं हृदय
नथी. वीतरागतामां ज शास्त्रोनुं आखुं हृदय समायेलुं छे.