Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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पोषः २४८४ः १पः
साथे कर्ता–कर्मपणुं नथी, ते करण नथी–साधन नथी, संप्रदान नथी, अपादान नथी, आधार नथी, ने तेनी साथे
आत्माने स्वस्वामीपणानो संबंध पण नथी.
प्रश्नः– त्यारे रागद्वेष कोणे कर्यो?
उत्तरः– जेनी द्रष्टि आत्मा उपर नथी तेणे! एटले एक समयपूरती ऊंधी मान्यताए आत्माने राग–द्वेषरूप ज
मानीने, ते रागादिने पोतानां करीने मान्या छे. समकिती तो शुद्ध ज्ञायकस्वभावने एकने ज पोतानो माने छे.
सम्यग्दर्शन थया पछी परमार्थे राग–द्वेषनुं कर्तृत्व गण्युं ज नथी, केम के समकिती पोताना शुद्धात्मस्वरूप साथे रागादिने
एकमेक करतो नथी.
‘जैनदर्शनमां तो बस! कर्मनी ज वात छे, ने कर्मथी ज बधुंय थाय छे–एम भगवाने कह्युं छे’–आम
अज्ञानीओ माने छे, पण तेने जैनदर्शननी खबर नथी. जैनदर्शनमां तो अनंतशक्तिसंपन्न अनेकान्तस्वरूप शुद्ध
आत्मानी ज मुख्यता छे; अने विकार वखते तेने निमित्त तरीके कर्म होय छे–एम भगवाने बताव्युं छे. कर्मरूप
थवानी ताकात पुद्गलनी छे. आत्मा जडकर्मने बांधे के छोडे, अथवा जड कर्म आत्माने हेरान करे–एम कहेवानो
भगवाननो आशय नथी. आत्मा परनी अवस्था करे नहि, ने पर पदार्थो आत्मानी अवस्था करे नहि,–
पोतपोताना छ कारकोथी ज दरेक द्रव्यनी अवस्था थाय छे. पर्यायमां विकार अने तेना निमित्तरूप कर्म छे ते
जाणवा योग्य छे, पण तेटलो ज आत्मा मानीने तेना आश्रयमां रोकाय तो मिथ्यात्व छूटतुं नथी, माटे
व्यवहारनय ज्ञानमां जाणवा योग्य छे, पण ते आदरवा योग्य नथी–एम जिनशासनमां आचार्यदेवे दांडी पीटीने
प्रसिद्ध कर्युं छे.
जीव अने पुद्गल बंने एकबीजाथी निरपेक्षपणे स्वयमेव छ कारकरूप थईने परिणमे छे. पंचास्तिकायनी ६२
मी गाथामां आ संबंधमां स्पष्ट कह्युं छे के निश्चयथी अभिन्न कारक होवाथी जीवने तेमज कर्मने बंनेने स्वयं
पोतपोताना स्वरूपनुं ज कर्तृत्व छे. “...
स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकांतरमपेक्षत
..” पुद्गल द्रव्य
पोते ज स्वयमेव छ कारकरूप थईने, अन्य कारकोनी अपेक्षा विना ज कर्मरूपे परिणमे छे. तेमज जीव पण पोताना
औदयिकादि भावोरूपे “...
स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकांतरमपेक्षते..” स्वयमेव छ कारकरूप
थईने, अन्य कारकोनी अपेक्षा विना ज परिणमे छे. ए गाथानो भावार्थ जणावतां श्री जयसेनाचार्यदेव लखे छे के–
अयमत्र भावार्थः। यथैवाशुद्धषट्कारकीरूपेण परिणममानः सन्नशुद्धमात्मानं करोति तथैव
शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेणाभेदषट्कारकी स्वभावेन परिणममानः शुद्धमात्मानं करोतीति” जेम
अशुद्ध छ कारकोरूपे परिणमतो थको अशुद्ध आत्माने करे छे तेम शुद्ध आत्मतत्त्वना सम्यक्श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानरूपे
अभेद छ कारक स्वभावथी परिणमतो थको शुद्ध आत्माने करे छे. आ रीते अशुद्धतामां तेमज शुद्धतामां अन्य कारकोथी
निरपेक्षपणुं छे.
बीजुं निमित्त हो भले, पण ते वखते तेनाथी निरपेक्षपणे ज वस्तु परिणमे छे. ‘पोताने योग्य जीवना
परिणाम पामीने, ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारनां कर्मो अन्यकर्ताथी निरपेक्षपणे ज ऊपजे छे–
‘..
कर्क्रेतरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यंत
’ एम पंचास्तिकायनी ६६मी गाथामां कह्युं छे. (विशेष माटे जुओ गा. ६२ तथा
६६)
अन्य कारकोथी निरपेक्षपणुं बतावीने आचार्यदेवे घणो स्पष्ट खुलासो कर्यो छे. व्यवहारथी बीजा जेटला कारको
कहेवामां आवता होय ते बधायथी निरपेक्षपणे ज जीव–पुद्गलनुं परिणमन छे. आवुं निरपेक्षपणुं जाणे तो पराश्रय
छूटीने स्वाश्रये शुद्धतारूप परिणमन थया विना रहे नहि.
वळी प्रवचनसारनी १२६मी गाथामां पण आचार्यदेवे कह्युं छे केः संसार अवस्थामां के साधक अवस्थामां पण
आत्मा एकलो ज पोते कर्ता–कर्म–करण अने कर्मफळ छे, बीजुं कोई तेनुं संबंधी नथी. तेमज १६मी गाथामां कह्युं छे के
शुद्धोपयोगनी भावनाना प्रभावथी केवळज्ञान प्राप्त करनार आत्मा पोते स्वयमेव छ कारकरूप थतो होवाथी ‘स्वयंभू’
छे. निश्चयथी परनी साथे आत्माने कारकपणानो संबंध नथी. (आ बंने गाथानां अवतरणो विस्तारथी आ ज लेखमां
आगळ आवशे.)
पोते शुद्धभावरूप परिणमीने पछी एम जाणे छे के पूर्वे रागादिरूपे पण हुं ज एकलो परिणमतो हतो, कोई
परना कारणे मारुं ते परिणमन न हतुं; अने हवे स्वभावरूप परिणमतां एम पण भान थयुं के पूर्वे जे रागादिरूप
परिणमन हतुं ते मारो स्वभाव