Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १६ः आत्मधर्मः १७१
न हतो–आम द्रव्य–पर्याय बंनेने यथार्थपणे ज्ञानी जाणे छे.
अहीं द्रव्यद्रष्टिनी प्रधानताथी आचार्यदेव कहे छे के, विकारना छ कारको अनुसार क्रिया थवानो आत्मामां
अभाव छे, आत्मा भेदरूप छ कारकोनी क्रियाथी रहित छे. अने शुद्ध छ कारको अनुसार थवारूप क्रियाशक्ति छे ते वात
हवेनी शक्तिमां कहेशे.
रागने कर्ता बनावीने तेना अनुसारे आत्मा धर्मरूपी कार्य करे एवो आत्मानो स्वभाव नथी.
रागने कर्म बनावीने तेनो आत्मा कर्ता थाय–एवो पण आत्मानो स्वभाव नथी.
ए ज प्रमाणे रागने साधन बनावीने आत्मा तेनाथी धर्मने साधे–एवो पण तेनो स्वभाव नथी.
पहेलां पर्यायमां रागादिनुं कर्ताकर्मपणुं हतुं पण ज्यां पर्याय अंतरमां वळी त्यां ते कर्ताकर्मपणुं न रह्युं.
अज्ञानभाव वखते रागादि कारकोने अनुसरतो, पण ज्यां अंतर्मुख थईने अभेद स्वभावने अनुसर्यो त्यां भेदरूप
कारकोने अनुसरवानी क्रिया न रही. आ रीते पोताना स्वभावने अनुसरे अने भेदरूप कारकोने न अनुसरे–एवी
आत्मानी भावशक्ति छे. जे शुद्धभाव थयो ते पोताना स्वभावने ज (अभेदरूप छ कारकोने ज) अनुसरे छे ने भेदरूप
कारकोने–रागने के परने–अनुसरतो नथी.
निमित्तने अनुसार थवानो आत्मानो स्वभाव नथी. जेवा विलक्षण निमित्तो आवे तेवुं विलक्षण परिणमन
थाय–एम माननार निमित्तने ज अनुसरे छे पण आत्माने अनुसरतो नथी, एटले निमित्तने न अनुसरे एवा
आत्मस्वभावनी आत्मानी (भावशक्तिनी) तेने खबर नथी. पोताना स्वभावथी भिन्न अन्य कारकोनी अपेक्षा
विना–निरपेक्षपणे पोते पोताना निर्मळभावरूपे परिणमे छे–एवी आत्मानी भावशक्ति छे.
प्रवचनसार गाथा १६मां सर्वज्ञ थयेला आत्माने ‘स्वयंभू’ तरीके वर्णवतां आचार्य भगवाने अद्भुत वात
करी छे; त्यां स्पष्ट कहे छे के–
“शुद्ध उपयोगनी भावनाना प्रभावथी समस्त घातिकर्मो नष्ट थयां होवाथी जेणे शुद्ध अनंत शक्तिवाळो
चैतन्यभाव प्राप्त कर्यो छे एवो आत्मा,–
(१) शुद्ध अनंतशक्तिवाळा ज्ञायक स्वभावने लीधे स्वतंत्र होवाथी जेणे कर्तापणानो अधिकार ग्रहण कर्यो छे
एवो,
(२) शुद्ध अनंतशक्तिवाळा ज्ञानरूपे परिणमवाना स्वभावने लीधे पोते ज प्राप्य होवाथी (–पोते ज प्राप्त
थतो होवाथी) कर्मपणाने अनुभवतो,
(३) शुद्ध अनंतशक्तिवाळा ज्ञानरूपे परिणमवाना स्वभावने लीधे पोते ज साधकतम (–उत्कृष्ट साधन)
होवाथी करणपणाने धरतो,
(४) शुद्ध अनंतशक्तिवाळा ज्ञानरूपे परिणमवाना स्वभावने लीधे पोते ज कर्मवडे समाश्रित थतो होवाथी
(अर्थात् कर्म पोताने ज देवामां आवतुं होवाथी) संप्रदानपणाने धारण करतो,
(प) शुद्ध अनंतशक्तिवाळा ज्ञानरूपे परिणमवाना समये पूर्वे प्रवर्तेला विकळज्ञानस्वभावनो नाश थवा छतां
सहज–ज्ञानस्वभाववडे पोते ज ध्रुवपणाने अवलंबतो होवाथी अपादानपणाने धारण करतो, अने
(६) शुद्ध अनंतशक्तिवाळा ज्ञानरूपे परिणमवाना स्वभावनो पोते ज आधार होवाथी अधिकरणपणाने
आत्मसात् करतो.
–ए रीते स्वयमेव छ कारकरूप थतो होवाथी.. ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे.
आथी एम कह्युं के–निश्चयथी परनी साथे आत्माने कारकपणानो संबंध नथी, के जेथी शुद्धात्म स्वभावनी
प्राप्तिने माटे सामग्री (–बाह्य साधनो) शोधवानी व्यग्रताथी जीवो (नकामा) परतंत्र थाय छे.”
परथी निरपेक्षपणे ज्ञान–आनंदरूपे परिणमवाना पोताना स्वभावने अज्ञानी जाणतो नथी ने बहारना ज
कारणोने शोधे छे तेथी ते मफतनो व्याकुळ–दुःखी ज थाय छे, क्यांय ठरतो नथी. ठरवानुं अंतरमां छे पण तेने तो ते
जाणतो नथी.–आतमरामने जाण्या विना शेमां आराम करे!
अहीं कहे छे के बहारना कारणो तो दूर रहो..पण विकारना कर्ता–कर्म–करण वगेरे छ कारको–जे आत्मानी