ः १८ः आत्मधर्मः १७१
“स्वतंत्रपणे परिणमे ते कर्ता.”–रागभाव कांई सम्यग्दर्शनादिरूपे परिणमतो नथी, पण आत्मा पोते ज
स्वतंत्रपणे सम्यग्दर्शनादिरूपे परिणमे छे तेथी आत्मा ज ते सम्यग्दर्शनादिनो कर्ता छे, राग तेनो कर्ता नथी.
‘कर्तानुं इष्ट ते कर्म.’ सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावरूपे परिणमवुं ते ज आत्मानुं इष्ट छे ने तेनो आत्मा कर्ता छे.
आ सिवाय निमित्तने के रागने इष्ट मानीने तेने ज अनुसार मिथ्यात्वादि भावरूपे जे परिणमे छे तेने खरेखर आत्मा
कहेता नथी, ते तो आस्रवतत्त्वमां जाय छे.
ए ज प्रमाणे कर्तानुं साधकतम साधन ते करण छे. आत्माने सम्यग्दर्शनादि इष्ट कार्यरूपे परिणमवामां पर के
रागादि खरुं साधन नथी पण पोतानो स्वभाव ज साधकतम होवाथी तेनुं साधन छे, तेथी आत्मा ज करण छे.
निमित्तोने के रागने साधन मानीने तेना आश्रये जे परिणमे छे तेने सम्यग्दर्शनादि इष्ट कार्य थतुं नथी पण
मिथ्यात्वादि थाय छे.
ए ज प्रमाणे कर्ता पोतानुं कार्य जेने आपे ते संप्रदान; आत्मा पोतानुं सम्यग्दर्शनादि कार्य रागने के निमित्तने
देतो नथी तेथी राग के निमित्तो तेनुं संप्रदान नथी; आत्मा पोताना स्वभावमां ज अभेदपणे तेने राखे छे तेथी आत्मा
ज तेनुं संप्रदान छे.
जेमांथी कार्य लेवामां आवे अथवा कार्यमां जे ध्रुवपणे टकी रहे ते अपादान छे. संयोगो अने राग तो छूटी जाय
छे माटे ते अपादान नथी; सम्यग्दर्शनादि कार्यमां आत्मा ज सळंगपणे टकी रहेनार छे ने तेमांथी ज ते कार्य लेवामां
आवे छे, माटे ते ज अपादान छे.
ए ज प्रमाणे राग के निमित्तो ते सम्यग्दर्शनरूपी कार्यनो आधार पण नथी, रागना के निमित्तना आधारे ते
कार्य थतुं नथी माटे राग तेनुं अधिकरण नथी, पण स्वभाव ज तेनो आधार होवाथी अधिकरण छे.
आ रीते आ भगवान आत्मा शुद्धभावरूप परिणमनमां परना कारको अनुसार थती क्रियाथी रहित छे, परना
कारको अनुसार थती जे विकारी क्रिया तेनाथी रहित शुद्धभावरूप भवनमात्र शक्तिवाळो आत्मा छे, तेमां अंतर्मुख
जोये ज कल्याण छे.
आत्मानो स्वभाव शुं छे तेनी आ वात चाले छे. पर्यायमां राग–द्वेष–मोहरूप विकार करे छे ते पण
जीव पोते ज करे छे पण ते जीवनुं खरूं स्वरूप नथी. विकारने ज पोताना स्वरूप तरीके मानवाथी जीव
संसारमां दुःख भोगवी रह्यो छे. विकार वगरनुं पोतानुं वास्तविक स्वरूप शुं छे तेने ओळखे तो दुःख टळीने
मुक्ति थाय, माटे आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! भिन्न कारको अनुसार विकाररूपे के हीनतारूपे परिणमवानो
तारो स्वभाव नथी, पण तेनाथी रहित शुद्धतारूपे ने पूर्णतारूपे परिणमवानो तारो स्वभाव छे. परथी
निरपेक्षता थतां पोताना स्वभावथी पूर्णता ज छे. बस! पूर्णता..पूर्णता ने पूर्णता ज छे–एवा स्वभावनो
स्वीकार ते सम्यग्दर्शन छे. अने आवा स्वभावने चूकीने, परने कारको मानीने, अज्ञानदशामां विकारपणे पण
पोते ज पोताना कारकोथी परिणमे छे, कोई बीजुं तेने परिणमावतुं नथी. प्रवचनसार गा. १८६मां कहे छे के
“ते आ आत्मा परद्रव्यनां ग्रहण–त्याग विनानो होवा छतां पण हमणां संसार–अवस्थामां, परद्रव्य
परिणामने निमित्तमात्र करता एवा केवळ स्वपरिणाममात्रनुं–ते स्वपरिणाम द्रव्यत्वभूत होवाथी तेनुं–
कर्तापणुं अनुभवतो थको, तेना ए ज स्वपरिणामने निमित्तमात्र करीने कर्मपरिणामने पामती एवी
पुद्गलरज वडे विशिष्ट अवगाहरूपे ग्रहाय छे अने कदाचित् मुकाय छे.” “
स इदाणिं कत्ता सं
सगपरिणामस्स दव्वजादस्स” एम मूळ सूत्रकार भगवाने कह्युं छे तेमांथी आ स्पष्ट अर्थ टीकाकार
आचार्यदेवे खुल्लो कर्यो छे. विकारी परिणाम पण आत्माना अस्तित्वमां थाय छे तेथी तेने दव्वजादस्स कह्या
छे, अने ते स्वपरिणामनो कर्ता आत्मा ज थाय छे, एम बताव्युं छे. पण ज्यां शुद्ध चिदानंदस्वरूपने द्रष्टिमां
लईने तेनी सन्मुख थयो त्यां ते अशुद्धपरिणमन रहेतुं नथी; अने अल्परागादि रहे तेनुं कर्तापणुं पण शुद्ध
द्रव्यनी द्रष्टिमां रहेतुं नथी. साधकदशामां विकारी कारकोनी क्रिया रहित निर्मळ भावरूपे पोते ज स्वतः परिणमे
छे. आ रीते बंधमार्गमां तेमज मोक्षमार्गमां आत्मा एकलो ज छे.
आ संबंधमां प्रवचनसार गा. १२६मां कहे छे के–“जे पुरुष ए रीते ‘कर्ता, करण, कर्म अने कर्मफळ आत्मा ज
छे’ एम निश्चय करीने खरेखर परद्रव्यरूपे