Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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पोषः २४८४ः १९ः
परिणमतो नथी ते ज पुरुष, परद्रव्य साथे संपर्क जेने अटकी गयो छे अने द्रव्यनी अंदर पर्यायो जेने प्रलीन थया छे
एवा शुद्धआत्माने उपलब्ध करे छे; परंतु अन्य कोई एवा शुद्ध आत्माने उपलब्ध करतो नथी.”
वळी आ वात विशेष स्पष्ट समजावतां आचार्यदेव कहे छे के–“ज्यारे...हुं...संसारी हतो त्यारे पण
(–अज्ञानदशामां पण) मारुं कोई पण संबंधी नहोतुं. त्यारे पण हुं एकलो ज कर्ता हतो, कारण के हुं एकलो ज
उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाववडे स्वतंत्र हतो (अर्थात् स्वाधीनपणे करतो हतो); हुं एकलो ज करण हतो, कारण के हुं
एकलो ज उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाववडे साधकतम (–उत्कृष्ट साधन) हतो; हुं एकलो ज कर्म हतो, कारण के हुं
एकलो ज उपरक्त चैतन्यरूपे परिणमवाना स्वभावने लीधे आत्माथी प्राप्य (–प्राप्त थवा योग्य) हतो; अने हुं
एकलो ज सुखथी विपरीत लक्षणवाळुं ‘दुःख’ नामनुं कर्मफळ हतो–के जे (फळ) उपरक्त चैतन्यरूपे परिणमवाना
स्वभाववडे निपजाववामां आवतुं हतुं.”
“...हमणां पण (– मुमुक्षुदशामां अर्थात् ज्ञानदशामां पण) खरेखर मारुं कोई पण नथी. हमणां पण हुं एकलो
ज कर्ता छुं, कारण के हुं एकलो ज सुविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभाववडे स्वतंत्र छुं (अर्थात् स्वाधीनपणे करुं छुं); हुं एकलो
ज करण छुं, कारण के हुं एकलो ज सुविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभाववडे साधकतम छुं; हुं एकलो ज कर्म छुं कारण के हुं
एकलो ज सुविशुद्ध चैतन्यरूपे परिणमवाना स्वभावने लीधे आत्माथी प्राप्य छुं; अने हुं एकलो ज
अनाकुळतालक्षणवाळुं ‘सुख’ नामनुं कर्मफळ छुं–के जे (फळ) सुविशुद्ध चैतन्यरूपे परिणमवाना स्वभाववडे
निपजाववामां आवे छे.”
“आ रीते बंधमार्गमां तेमज मोक्षमार्गमां आत्मा एकलो ज छे एम भावनार आ पुरुष परमाणुनी माफक
एकत्व भावनामां उन्मुख होवाथी (–अर्थात् एकत्वने भाववामां तत्पर–लागेलो–होवाथी), तेने परद्रव्यरूप परिणति
बिलकुल थती नथी; अने, परमाणुनी माफक (अर्थात् जेम एकत्वभावे परिणमनार परमाणु पर साथे संग पामतो
नथी तेम), एकत्वने भावनार पुरुष पर साथे संपृक्त थतो नथी; तेथी परद्रव्य साथे असंपृक्तपणाने लीधे ते सुविशुद्ध
होय छे. वळी, कर्ता, करण, कर्म अने कर्मफळने आत्मापणे भावतो थको ते पुरुष पर्यायोथी संकीर्ण (–खंडित) थतो
नथी; अने तेथी पर्यायो वडे संकीर्ण नहि थवाने लीधे सुविशुद्ध होय छे.”
विकारदशा वखते पण तेना छए कारक जो के आत्मामां छे, परंतु ते अशुद्ध छ कारको अनुसार
परिणमवानो आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव नथी–एम अहीं बताववुं छे. आत्मामां एक एवो
अनादिअनंतभाव छे के जे परनो के विकारनो कर्ता थतो नथी. आत्मानी अनंतशक्तिओमां विकारनी कर्ता–
कर्म–करण –संप्रदान–अपादान के अधिकरण थाय एवी तो कोई शक्ति नथी, ते तो मात्र क्षणिक पर्यायनो धर्म
छे; तेथी अनंतशक्तिवाळा अखंड आत्मानी द्रष्टिमां तो तेनो अभाव ज छे. आवा स्वभावनी सन्मुख थईने
शुद्धभावरूपे परिणमतां धर्मीने भान थयुं के अहो! विकारी कारकोनी क्रियाने अनुसार परिणमवानो मारो
स्वभाव नथी. अभेदस्वभावमां एकत्वपणे शुद्धभावरूपे परिणमवानो ज मारो स्वभाव छे. शरीर–मन–
वाणीनो, परजीवनो के पुण्य–पापनो कर्ता थईने परिणमवानो आत्मानो स्वभाव नथी. पर्यायमां एक
समयपूरती विकारनी अमुक लायकात छे तेने धर्मी जाणे छे, पण तेने शुद्धस्वभावमां खतवता नथी, तेने
आदरणीय मानता नथी. माटे शुद्धस्वभावना आदरनी द्रष्टिमां विकारनो अभाव ज वर्ते छे. जो विकारना
अभावरूप त्रिकाळ निर्दोष स्वभावनी द्रष्टि छोडीने एकला विकार भावने ज जाणवामां रोकाय तो त्यां एकांत
पर्यायबुद्धिरूप मिथ्यात्व थाय छे.
श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे आ ४७ शक्तिओमां आखा समयसारनुं दोहन करीने आत्मानुं स्वरूप बताव्युं छे. आ
सूक्ष्म अंतरनो विषय छे. टूंकामां घणुं रहस्य भरी दीधुं छे. अंतरमां ऊंडो ऊतरीने समजे तेने तेनी गंभीरताना
महिमानी खबर पडे.
आ भगवान आत्मामां अनंत शक्तिओ छे; ते बधी शक्तिओ केवी छे?–(१) आत्मानी कोईपण शक्ति
एवी नथी के शरीरादि परनुं कार्य करे; एटले जे परनुं कर्तापणुं माने छे तेणे आत्मानी शक्तिने ओळखी नथी. (२)
पर्यायमां एक समय पूरतो जे