Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १७१
विकार छे ते शक्तिमां भर्यो नथी, एटले ते विकारना कर्तृत्वमां ज जे रोकाय तेने आत्मानी शक्तिनी प्रतीत
नथी. (३) अनंतशक्तिओ भिन्न भिन्न होवा छतां ते बधी शक्तिस्वरूप आत्मा तो एक छे, एटले भिन्न
भिन्न शक्तिना भेदना लक्षे पण आखो आत्मा प्रतीतमां नथी आवतो. आ रीते पर, विकार अने भेद ए
त्रणेथी पार एकाकार चैतन्य स्वभावनी द्रष्टिथी ज अनंतशक्तिसंपन्न भगवान आत्मा प्रतीतमां ने
अनुभवमां आवे छे. अने आवा आत्मानी प्रतीतवाळो जीव भेदना आश्रये थती विकारी क्रियाने के जडनी
क्रियाने पोताना स्वरूपमां स्वीकारतो नथी; तेने अभेद स्वभावना आश्रये परिणमनरूप क्रियाथी
सम्यग्दर्शनादि थाय छे ते धर्म छे. आ रीते भेदरूप कारको अनुसार थती विकारी क्रियानी नास्ति छे अने
अभेदरूप कारकना आश्रये थती निर्मळ क्रियानी अस्ति छे. तेमांथी भेदकारको अनुसार थती विकारी क्रियानुं
नास्तिपणुं आ ३९मी शक्तिमां बताव्युं; अने अभेद–आश्रित निर्मळभाव थवारूप क्रियानुं अस्तिपणुं हवेनी
शक्तिमां बतावशे.
जेने रागादि व्यवहारना आश्रयनी भावना छे अथवा ते करतां करतां निश्चयरत्नत्रय पमाशे एम जे माने छे
ते मिथ्याद्रष्टि छे, रागरहित आत्मस्वभावने ते मानतो नथी. समकितीनी द्रष्टिमां पोताना शुद्ध चिदानंदस्वभावनुं ज
अवलंबन छे ने तेनी ज भावना छे, साधकपणामां व्यवहार रत्नत्रयादिनो राग होय भले पण तेने तेनी भावना
नथी. अहो! पोताना चैतन्यतत्त्वने वास्तविकपणे जाणीने तेनी भावना जीवे पूर्वे कदी करी नथी. एक क्षण पण जेनी
भावना करवाथी अनंत काळना जन्म–मरण छूटी जाय एवा चैतन्यतत्त्वनी आ अपूर्व वात छे. अपूर्व रुचिपूर्वक
वारंवार आनुं श्रवण–मनन अने भावना करवा जेवा छे.
देहथी जुदो, आ चैतन्यस्वरूप आत्मा त्रिकाळ टकनार होवा छतां क्षणेक्षणे पलटवारूप क्रिया पण तेनामां थाय
छे. जो एवी क्रिया न होय तो वस्तुनुं होवापणुं ज सिद्ध न थाय. कह्युं छे के–
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म।
या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।।
(समयसार कळश प१)
करता परिणामी दख, कर्मरूप परिणाम;
क्रिया परजयकी फेरनी, वस्तु एक त्रय नाम.
(नाटक–समयसार)
परिणमनार द्रव्य ते कर्ता छे, जे परिणाम थाय छे ते तेनुं कर्म छे, अने एक पर्यायथी बीजी पर्यायरूपे
पलटवारूप क्रिया छे. ए त्रणेय वस्तुपणे एक छे; एटले के कर्ता एक वस्तु ने तेनुं कर्म बीजी वस्तुमां–एम भिन्न
भिन्न वस्तुमां कर्ताकर्मपणुं होतुं नथी. आ चैतन्यमूर्ति आत्मा कर्ता थईने शरीरादिना कार्यने करे एम तो नथी, अने
आत्मा कर्ता थईने रागादिने करे एवो पण तेनो स्वभाव नथी. आत्मा कर्ता थईने पोताना निर्मळ परिणामने करे ते
ज तेनो स्वभाव छे.
आत्मा पलटीने पोतानी ज्ञानादि पर्यायरूप थाय छे, पण आत्मा पलटीने कदी पण जड शरीररूप थतो
नथी माटे आत्मा शरीरनां कार्योनो कर्ता नथी. शरीरनी क्रियापणे तो जड परमाणुओ पलटे छे. जे वस्तु जे
कार्यरूपे परिणमे तेने ज तेनी कर्ता कहेवाय. आत्मा कांई शरीरना कार्यरूपे नथी परिणमतो. अने खरेखर तो
रागमां पण अभेद थईने आत्मा नथी परिणमतो; आत्मा तो पोताना निर्मळ पर्यायरूपी कार्यमां अभेद थईने
परिणमे छे तेथी तेनो ज ते कर्ता छे, अने ते ज तेनुं कर्म छे. आने बदले विकारमां तन्मयता मानीने जे परिणमे
छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.
जुओ, आ आत्मानी क्रियानुं वर्णन! आमां क्रिया उथापाती नथी पण वास्तविकधर्मनी क्रिया स्थपाय छे. हा!
जगत जडनी क्रियामां ने विकारनी कियामां धर्म मानी रह्युं छे ते वात उथापाय छे; ने शुद्धभावरूप धर्मनी क्रिया
सम्यक्पणे स्थपाय छे. जेटला तीर्थंकरो–संतो–मुनिओ–धर्मात्माओ थया, छे अने थशे, ते बधाये आ ज क्रियाथी धर्म
कर्यो छे ने कह्यो छे. भगवाने अने संतोए त्रण प्रकारनी क्रिया स्थापी छे –
(१) शरीर वगेरेनी क्रियाने जडनी क्रिया तरीके स्थापी छे.
(२) राग–द्वेष–मोहरूप विकारने अधर्मनी क्रिया तरीके स्थापी छे.