स्वरूप अरूपी छुं ने बधाय आत्मा पण एवा ज चैतन्यस्वरूप अरूपी छे. आ शरीर देखाय छे ते तो रूपी–जड–
अचेतन छे, ते हुं नथी, अने बीजा शरीर देखाय छे ते पण आत्मा नथी, बीजा आत्माओ ते शरीरथी जुदा छे.
अज्ञानी तो पोताना आत्माने पण शरीररूप ज देखे छे, शरीर ते हुं ज छुं एम माने छे, अने बीजा आत्माओने पण
ए ज रीते शरीररूपे ज देखे छे. शरीर जड छे ने आत्मा चेतन छे–एम तो बोले, पण वळी एम माने के ‘शरीरनी
क्रिया आत्मा करे छे, शरीरनी क्रियाथी आत्माने लाभ–नुकसान थाय’–तो ते शरीरने आत्मा ज माने छे, शरीरथी
भिन्न आत्माने खरेखर ते मानतो नथी; अने तेने समाधि थती नथी. देह ते ज हुं–एम देहने ज जेणे आत्मा मान्यो
छे तेने देह छूटतां समाधि केम रहेशे? नजर तो देह उपर पडी छे एटले तेने देह छूटवाना अवसरे समाधि रहेशे नहि.
ज्ञानी तो पोताना आत्माने देहथी भिन्न ज जाणे छे, चैतन्यस्वरूप ज हुं छुं, शरीर हुं नथी–एवुं तेने भान छे एटले
देह छूटवाना अवसरे पण चैतन्यना लक्षे तेने समाधि ज रहे छे. माटे भेदज्ञान करीने अंतरमां स्वसंवेदनथी
चिदानंदस्वरूप पोताना आत्माने जाणवो ते ज समाधिनो उपाय छे.
तथा बहारमां स्त्री–पुत्र–धन वगेरेने पण पोताना हितरूप जाणीने भ्रमथी वर्ते छे एम हवे कहे छे–
वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्यादिगोचरः।।११।।
बाह्यद्रष्टिथी शरीररूपे ज देखे छे, पण शरीरथी भिन्न अंदरनी चैतन्य परिणतिवाळो आत्मा छे तेने ते ओळखतो
नथी. शरीरने ज अज्ञानी देखे छे पण आत्मा शुं छे, आत्माना ज्ञानादि भावो शुं छे तेने ते ओळखतो नथी. जड कर्मने
लीधे आत्माने विकार थाय–एम माननार पण खरेखर आत्माने जडथी भिन्न ओळखतो नथी. पोताना आत्माने
ज्ञानानंदस्वरूपे जाण्या विना बीजाना आत्मानी पण वास्तविक ओळखाण थती नथी.