Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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पोषः २४८४ः २३ः
स्वरूप अरूपी छुं ने बधाय आत्मा पण एवा ज चैतन्यस्वरूप अरूपी छे. आ शरीर देखाय छे ते तो रूपी–जड–
अचेतन छे, ते हुं नथी, अने बीजा शरीर देखाय छे ते पण आत्मा नथी, बीजा आत्माओ ते शरीरथी जुदा छे.
अज्ञानी तो पोताना आत्माने पण शरीररूप ज देखे छे, शरीर ते हुं ज छुं एम माने छे, अने बीजा आत्माओने पण
ए ज रीते शरीररूपे ज देखे छे. शरीर जड छे ने आत्मा चेतन छे–एम तो बोले, पण वळी एम माने के ‘शरीरनी
क्रिया आत्मा करे छे, शरीरनी क्रियाथी आत्माने लाभ–नुकसान थाय’–तो ते शरीरने आत्मा ज माने छे, शरीरथी
भिन्न आत्माने खरेखर ते मानतो नथी; अने तेने समाधि थती नथी. देह ते ज हुं–एम देहने ज जेणे आत्मा मान्यो
छे तेने देह छूटतां समाधि केम रहेशे? नजर तो देह उपर पडी छे एटले तेने देह छूटवाना अवसरे समाधि रहेशे नहि.
ज्ञानी तो पोताना आत्माने देहथी भिन्न ज जाणे छे, चैतन्यस्वरूप ज हुं छुं, शरीर हुं नथी–एवुं तेने भान छे एटले
देह छूटवाना अवसरे पण चैतन्यना लक्षे तेने समाधि ज रहे छे. माटे भेदज्ञान करीने अंतरमां स्वसंवेदनथी
चिदानंदस्वरूप पोताना आत्माने जाणवो ते ज समाधिनो उपाय छे.
।। १० ।।
चैतन्यस्वरूप आत्माने जेणे न जाण्यो तेणे शरीरने ज आत्मा मान्यो. तेनी नजर अंतरमां चैतन्य उपर न
आवी पण बहारमां नजर लंबाणी, एटले परमां बीजाना आत्माने पण देहथी जुदो न जाणतां शरीररूपे ज माने छे;
तथा बहारमां स्त्री–पुत्र–धन वगेरेने पण पोताना हितरूप जाणीने भ्रमथी वर्ते छे एम हवे कहे छे–
स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम्।
वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्यादिगोचरः।।११।।
पोतामां तेमज परमां देहने ज जे आत्मा माने छे, अने देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने तो जाणतो नथी, ते
मूढ जीवनी ऊंधी द्रष्टि बहारमां लंबाय छे एटले विभ्रमथी ते एम माने छे के आ मारी स्त्री, आ मारो पुत्र इत्यादि.
अज्ञानी मूढ जीव आत्मानो अजाण पोताना अने परना शरीरने ज आत्मा मानीने भ्रमणाथी वर्ते छे; तेथी
बीजाने पण ते शरीर उपरथी ज ओळखे छे. सर्वज्ञ भगवानने, मुनिओने, संतोने वगेरे बधायने पण ए ज रीते
बाह्यद्रष्टिथी शरीररूपे ज देखे छे, पण शरीरथी भिन्न अंदरनी चैतन्य परिणतिवाळो आत्मा छे तेने ते ओळखतो
नथी. शरीरने ज अज्ञानी देखे छे पण आत्मा शुं छे, आत्माना ज्ञानादि भावो शुं छे तेने ते ओळखतो नथी. जड कर्मने
लीधे आत्माने विकार थाय–एम माननार पण खरेखर आत्माने जडथी भिन्न ओळखतो नथी. पोताना आत्माने
ज्ञानानंदस्वरूपे जाण्या विना बीजाना आत्मानी पण वास्तविक ओळखाण थती नथी.
आत्मधर्म अंक १७० (मागसर)मां सुधारो
आत्मधर्मना गतांकमां, प्रेसना प्रूफ संशोधनमां नीचे मुजब भूलो रही गई छे ते सुधारीने वांचवा विनंति छे.
पानुं–कोलम–लाईनअशुद्धशुद्ध
८–२–१७शास्त्रोमां.. अवलंबननुंशास्त्रोमां व्यवहारना अवलंबननुं
१०–२–१संकोच थाय होयसंकोच थतो होय
११–२–११अनंतगुणना... एवाअनंतगुणना भंडार एवा
१३–१–१७आ रीते जआ रीते
१प–२–१९विद्यमान तेविद्यमान छे ते
१८–२–२९स्वभावमां जे रागादिस्वभावमां छे ते
१९–२–३१केम न भेळवे?केम भेळवे?
२२–२–११जड शरीरने जेजड शरीरने ज
२२–२–२६ज्ञानानंदस्वरूपनी हुंज्ञानानंदस्वरूपथी हुं
२३–१–१ज्ञानानंदस्वरूपथी जेज्ञानानंदस्वरूपनी जे
२४–पएम थई जाय केएम थई जाय छे के
२४–२२ते जीवे पोतेते जीवो पोते
२४–२पएम दुःख तोदुःख तो
(अंक ११९) ११–२–१२ भाव–अभाव बनेअभाव–भाव बंने