Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म
वर्ष पंदरमुंः अंक त्री जो संपादकः रामजी माणेकचंद दोशी पोषः २४८४
ज्ञानी जनो सदा काळ आनंदरूप रहो
(कारतक सुद बीजना प्रवचनमांथी)
आत्मा पोते आनंदनो समुद्र छे, तेमां अंतर्मुख थईने डुबकी मारतां पर्यायमां आनंदना
तरंग ऊठे छे. जेम चंद्रनो उदय थतां दरियो ऊछळे छे, तेम सम्यग्ज्ञानीरूपी चंद्रनो उदय थतां
आनंदनो दरियो ऊछळे छे.
पहेलां एवो द्रढ निश्चय करवो जोईए के हुं ज ज्ञान–आनंदस्वरूप छुं; सर्वज्ञ थवानी ताकात
मारामां छे. आवा स्वरूपनो निर्णय करीने पछी वारंवार ज्ञानचेतनाने तेमां एकाग्र करवाथी
केवळज्ञान थाय छे, ने केवळज्ञान थया पछी जीव सदाय परम आनंदरूप ज रहे छे. तेथी आचार्यदेव
कहे छे के अहो, ज्ञानी जनो! आ ज्ञानचेतनाने नचावता थका केवळज्ञानरूप थईने सदा काळ
आनंदरूप रहो.
“सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां,
अनंत दर्शन ज्ञान अनंत सहित जो.”
ज्ञानचेतनाने अंतरमां एकाग्र करतां आत्माना परम शांतरसनो अनुभव थाय छे. ज्ञानी
जनो आनंदपूर्वक पोतानी ज्ञानचेतनाने नचावता थका हवेथी सदाकाळ (सादि–अनंत) प्रशमरसने
पीओ. अहा! आत्मामां एकाग्र थतां परम आह्लादपूर्वक आत्माना प्रशमरसनुं वेदन थाय छे;
समकितीने ते स्वादनो नमूनो वेदनमां आवी गयो छे; ते उपरांत अहीं तो अंतरमां लीन थईने
पूर्ण आनंद प्रगटाववानी आ वात छे. आचार्यदेव कहे छे के ज्ञानी जनो सदा काळ आनंदरूप रहो.–
कई रीते? के पोतानी ज्ञानचेतनाने नचावता थका; ज्ञायकभावने द्रष्टिमां लीधो, हवे ते
ज्ञायकभावमां ठरो रे ठरो! ज्ञायकभावमां एकाग्र थईने चैतन्यना प्रशांतरसनुं पान करो. क्यां
सुधी? के अत्यारथी मांडीने सदा काळ प्रशमरसने पीओ.
सानंदं नाटयंतः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबंत
आनंदसहित ज्ञानचेतनाने नचावता थका सदाकाळ प्रशमरसने पीधा करो. आ रीते
ज्ञानचेतना वडे प्रशमरसने पीता थका ज्ञानी जनो सदा काळ आनंदरूप रहो.
चैतन्यनी भावना करीने तेमां एकाग्र थतां आनंदना वेदनथी जीव तृप्त तृप्त थई जाय छे,–
एवो तृप्त थई जाय छे के तेमांथी बहार नीकळवा मांगतो नथी, तेमां ज लीन रहेवा मांगे छे.
आनंदनुं वेदन थतां एवी तृप्ति थाय छे के कोई तृष्णा रहेती नथी. बाह्य विषयोमां अनंतकाळथी
वर्ते छे छतां जीव अतृप्त ज रह्यो; ज्ञानने अंतरमां वाळीने चैतन्यविषयमां एकाग्र करतां
आनंदरसना पानथी आत्मा एवो तृप्त–तृप्त थई जाय छे के जगतना कोई विषयोनी तृष्णा तेने
रहेती नथी. आ रीते स्वभावनी एकाग्रतामां ज सुख–शांति ने तृप्ति छे; माटे हे जीवो! आवा
चैतन्यस्वभावने ओळखीने, तेमां एकाग्रता वडे सदा काळ आनंदरूप रहो.