Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः४ः आत्मधर्मः १७१
श्री दशरथ महाराजा ज्यारे वैराग्य पामीने जिनदीक्षा
अंगीकार करवा तैयार थया छे, त्यारे कैकेयीपुत्र भरत पण
पिताजीनी साथे ज दीक्षा लेवा तैयार थाय छे. आथी पति अने पुत्र
बंनेना एक साथे वियोगथी कैकेयी आघात पामे छे; अने “भरतना
राज्याभिषेकनुं” वरदान मांगीने भरतने दीक्षा लेतो रोकवा प्रयत्न
करे छे. राजसभामां खूब चर्चा बाद, अंते भरतने राजतिलक करीने
दशरथ महाराजा दीक्षा अंगीकार करवा वनमां चाल्या जाय छे.
– वींछीयाना संवादनो आटलो भाग आत्मधर्मना गया
अंकमां आवी गयो छे. त्यार पछीनो बीजो भाग अहीं आपवामां
आव्यो छे.
(राजसभामां लक्ष्मण प्रवेश करे छे, ने क्रोधित थईने स्वगत कहे छे.)
लक्ष्मणः– अरे, पिताजीए एक स्त्रीना कहेवाथी केवो अन्याय कर्यो? पाटवी कुंवर रामने छोडीने भरतने राज्य
आप्युं, आ महा अनुचित थयुं. हुं एवो समर्थ छुं के हाल ज समस्त दुराचारीओनो पराभव करीने श्री
रामचंद्रजीना चरणमां समग्र राजलक्ष्मी धरुं! परंतु नहीं, मारे आ प्रसंगे क्रोध करवो उचित नथी. क्रोध
महा दुःखदायक छे...पिताजी ज्यारे जिनदीक्षा अंगीकार करी चारित्रना वीतराग मार्गे प्रयाण करी रह्या छे
त्यारे आवा मंगळ समयमां क्रोधित थवुं मारा माटे योग्य नथी. मारे आवा विचारो साथे शुं प्रयोजन छे!
योग्य शुं अने अयोग्य शुं–ए तो राम जाणे, मारे तो वडील बंधुनी आज्ञा ऊठावी, मारी फरज बजाववा
कर्तव्यशील रहेवुं एटलुं ज मारा माटे बस छे.
(एक अनुचर प्रवेश करे छे.)
अनुचरः– हे पुरुषोत्तम स्वामी! हुं माताजीना महेलेथी आवुं छुं.
रामः– शा
समाचार छे, माताजीना?
अनुचरः– नाथ, आप देशांतर जवाने तैयार थया छो ते सांभळीने माताजी अश्रुपात करी रह्या छे...अने कहेवरावे छे
के तेओ पण आपनी साथे ज आवशे.
लक्ष्मणः– अरे, माताजी विदेशमां साथे आवे ते जरा पण योग्य नथी; वनमां रहेवुं ने देश–देशांतर फरवुं ए तो घणुं
कठिन छे.
अनुचरः– कुंवरजी! घणी रीते समजाववा छतां माताजी समजतां नथी; आप कंई योग्य मार्ग करो.
रामः– माताजीने कहो के अमे तो पगपाळा जवाना छीए; मार्गमां कांटा–पथ्थर ने कांकरा बहु ज होय छे, तेओ
कई रीते चाली शकशे? माटे जाव अने माताजीने कहो के हाल तो शांतिथी