अमे हवे विदाय थईने छीए, माताजीना चरणोमां अमारा नमस्कार कहेजो.
छे. ते कहे छे के “ज्यां आर्यपुत्र त्यां हुं,–तेओ वनमां विचरे ने हुं आ महेलमां–एक क्षण पण रही शकुं
नहि; तेथी ते पण आपनी साथे ज आवी रह्या छे.
पण मूकयो नथी, एवा सीताजी वन–पर्वतना विकट मार्गोमां कई रीते चालशे? हा, पिताजी! आ
राज्यनो भार मारे माथे नांखीने आ शुं विटंबणा ऊभी करी!–मारे आ राज्यथी शुं प्रयोजन हतुं?
पिताजी तो दीक्षा अंगीकार करीने वनवास सीधाव्या, अने वडीलबंधु पण लक्ष्मण अने सीताजी
सहित अयोध्या छोडीने देशांतरगमन करी रह्या छे. अरे, आनंदथी झळहळती अयोध्यानगरी आजे
सुमसाम बनी गई छे! एकेएक नगरजन शोकमां गरकाव बनी गयो छे, राजमाताओना
रोईरोईने आंसु पण खूटी गया छे. अरे! अयोध्याना वृक्षो अने वेलडीओ पण उदासीन बनीने
ऊभां छे...अरे, आ सरयू नदीनां नीर पण मीठा कलरव बंध करीने वेदनाना सूर संभळावी रह्या
छे. अने आ पर्वतना शिखरो ने जंगलना जानवरो पण श्रीरामचंद्रजीना वियोगे खेदखिन्न थई गया
छे. अरे! माराथी आ प्रसंग जोवातो नथी...भाई...भाई! मारा अंतरनी व्यथा हुं आपने कया
शब्दोमां कहुं? अरेरे, धिक्कार आवा संसारने!
आवी वस्तुस्थितिना जाणकार छो...माटे धीरज कर्तव्य छे.
गंगा वही रही छे; माताओ रुदन करी रह्या छे, मारी माताने तो पश्चात्तापनो पार नथी. अरे, आपना
विना आ राज्यथी मारे शुं प्रयोजन छे? प्रभो! आप नगरीमां रहीने राज्य करो...हुं आपना उपर छत्र
धरीने ऊभो रहीश..ने भाई शत्रुघ्न चामर ढाळशे, तथा लक्ष्मणभाई मंत्रीपद संभाळशे.
संभाळो...हवे अमारा प्रस्थाननो समय थई गयो छे. श्री जिनेन्द्रभगवानने नमस्कार करी, तमारी सौनी
विदाय लईने, अने वच्चे आवता जिनमंदिरोना दर्शन करीने अमे दूर–देशांतर जईए छीए. तमे सौ
वीतरागी जैनधर्मने हृदयमां धारी राखजो ने राज्यभरमां तेनी प्रभावना वधारजो.