Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 25

background image
पोषः २४८४ःपः
थोडो वखत अहीं ज रहो, पछी कोई स्थळ नक्की करीने अमे जरूर रथमां बेसाडीने तेमने तेडावी लईशुं.
अमे हवे विदाय थईने छीए, माताजीना चरणोमां अमारा नमस्कार कहेजो.
अनुचरः– जेवी आपनी आज्ञा! (एम कहीने विदाय थाय छे.)
(राम–लक्ष्मण जवानी तैयारी करे छे; त्यां बीजो अनुचर आवीने कहे छेः)
बीजो अनुचरः– प्रभो! सीतादेवी माता आपनी साथे आववा माटे राजमहेलना दरवाजे तैयार थईने ऊभां छे.
कौशल्या माताजीए घणुं समजाववा छतां तेओ कोई रीते अटकता नथी. ते आपनी साथे ज आववा इच्छे
छे. ते कहे छे के “ज्यां आर्यपुत्र त्यां हुं,–तेओ वनमां विचरे ने हुं आ महेलमां–एक क्षण पण रही शकुं
नहि; तेथी ते पण आपनी साथे ज आवी रह्या छे.
भरतः– (सिंहासन उपरथी ऊभा थईने वेदनाथी कहे छेः) अरे! पवित्र मूर्ति सीताजी पण शुं रामचंद्रजीनी
साथे विदेश सीधावशे? अरे, फूलनी कोमळ शैय्यामां सुनार अने कठण जमीन उपर जेणे कदी पग
पण मूकयो नथी, एवा सीताजी वन–पर्वतना विकट मार्गोमां कई रीते चालशे? हा, पिताजी! आ
राज्यनो भार मारे माथे नांखीने आ शुं विटंबणा ऊभी करी!–मारे आ राज्यथी शुं प्रयोजन हतुं?
पिताजी तो दीक्षा अंगीकार करीने वनवास सीधाव्या, अने वडीलबंधु पण लक्ष्मण अने सीताजी
सहित अयोध्या छोडीने देशांतरगमन करी रह्या छे. अरे, आनंदथी झळहळती अयोध्यानगरी आजे
सुमसाम बनी गई छे! एकेएक नगरजन शोकमां गरकाव बनी गयो छे, राजमाताओना
रोईरोईने आंसु पण खूटी गया छे. अरे! अयोध्याना वृक्षो अने वेलडीओ पण उदासीन बनीने
ऊभां छे...अरे, आ सरयू नदीनां नीर पण मीठा कलरव बंध करीने वेदनाना सूर संभळावी रह्या
छे. अने आ पर्वतना शिखरो ने जंगलना जानवरो पण श्रीरामचंद्रजीना वियोगे खेदखिन्न थई गया
छे. अरे! माराथी आ प्रसंग जोवातो नथी...भाई...भाई! मारा अंतरनी व्यथा हुं आपने कया
शब्दोमां कहुं? अरेरे, धिक्कार आवा संसारने!
रामः– भाई, तमे तो धीर अने वीर छो. आवी व्यथा तमने न शोभे, माटे धीरज धरो. कुदरतना क्रममां
बननारा प्रसंगो निर्णीत होय छे, साक्षात् इन्द्र–नरेन्द्र के जिनेन्द्र पण तेने फेरववा समर्थ नथी. तमे तो
आवी वस्तुस्थितिना जाणकार छो...माटे धीरज कर्तव्य छे.
भरतः– वडील बंधु! आपनी वात साची छे, आप महाप्रवीण, न्यायमार्गना ज्ञाता छो; पण आपनो विरह
अमाराथी सह्यो जतो नथी. अरे..अयोध्यानगरीना एके एक नगरजनना नयनोमांथी आज आंसुनी
गंगा वही रही छे; माताओ रुदन करी रह्या छे, मारी माताने तो पश्चात्तापनो पार नथी. अरे, आपना
विना आ राज्यथी मारे शुं प्रयोजन छे? प्रभो! आप नगरीमां रहीने राज्य करो...हुं आपना उपर छत्र
धरीने ऊभो रहीश..ने भाई शत्रुघ्न चामर ढाळशे, तथा लक्ष्मणभाई मंत्रीपद संभाळशे.
रामः– अरे भरत! धैर्य धरो...क्षत्रियधर्मनी टेकने याद करो...पिताजीए आपेलुं वचन पाळवुं ते आपणा
रघुकुळनी टेक छेः
रघुकुळ रीति ऐसी चली आई..
प्राण जाय पण वचन न जाई..
माता–पितानी आज्ञा पालन करवामां तमने कोई दोष दई शके नहि...माटे निश्चिंतपणे तमे आ राज्य
संभाळो...हवे अमारा प्रस्थाननो समय थई गयो छे. श्री जिनेन्द्रभगवानने नमस्कार करी, तमारी सौनी
विदाय लईने, अने वच्चे आवता जिनमंदिरोना दर्शन करीने अमे दूर–देशांतर जईए छीए. तमे सौ
वीतरागी जैनधर्मने हृदयमां धारी राखजो ने राज्यभरमां तेनी प्रभावना वधारजो.
(राम–लक्ष्मण चाल्या जाय छे...जतां जतां वच्चे मोटी सरयू नदी आवे छे.)