पोषः २४८४ः७ः
(रागः मन डोले..मेरा...)
जय बोलो..जय जय बोलो,
जिनधर्मनो जयजयकार रे..
–आ जैन धरमनो झंडो छे..
उर खोलो..जय जय बोलो,
सत् धर्मनो जयजयकार रे..
–आ वीर प्रभुनो झंडो छे..
झंडा तारी शोभा भारी, रमणीय तारुं रूप;
विश्वगगनमां चमकित चंद्र, अनुपम तारुं स्वरूप–
–झंडा, अनुपम तारुं स्वरूप..
जय बोलो..जय जय बोलो,
जिन धर्मनो जयजयकार रे..
–आ जैन धरमनो झंडो छे.. (१)
सत्य अहिंसा स्वतंत्रतानो आपे छे सन्देश;
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनो आपे छे आदेश..
–जीवोने आपे छे आदेश.. जय० (२)
इन्द्र नरेन्द्र मुनिन्द्रो आवी चरणे शीश नमावे,
देव–पशु–मानवना वृंदो आवी आशीष मांगे
जीवो सौ आवी आशीष मांगे..जय० (३)
कुंद–कान गुरुजी फरकावे शाश्वत शासन झंडा;
फर फर फरके उन्नत ऊडतो, अमर वीरागी झंडो–
– हां ए अमर वीरागी झंडो.. जय० (४)
सीमंधर–वीरना लघुनंदन कुंदामृत गुरु कहान;
भारतभरमां विजयपताका शासन छे सुखधाम–
– प्रभुनुं शासन छे सुखधाम..
जय बोलो, जय जय बोलो,
जिन धर्मनो जय जयकार रे..
– आ जैन धरमनो झंडो छे..
उर खोलो, जय जय बोलो,
सत्धर्मनो जयजयकार रे..
– आ जैन धरमनो झंडो छे.
(नोंधः– पद्मपुराणमां श्री रामचंद्रजीना विदेशगमननी वात पहेलां आवे छे ने त्यार पछी दशरथ राजा दीक्षा
ल्ये छे; परंतु अहीं संवाद भजववानी अनुकूळता माटे दशरथ राजानो दीक्षानो प्रसंग पहेलां बताववामां आव्यो छे.
आ संवादमां, वैरागी भरतराजनुं पाछळनुं जीवन अधूरुं रहे छे, जिज्ञासु वांचकोने सहेजे ते जाणवानी
आकांक्षा थशे..तेथी ते आवता अंके आपवामां आवशे.)
विज्ञानी के अज्ञानी!
भले मोटा मोटा बोंबगोळा बनावी जाणे के कृत्रिम उपग्रह बनावीने आकाशमां तरता मूके, पण जो
आत्मस्वरूपने जाणीने भवसमुद्रथी तरतां न आवडे तो ते जीव विद्यामां कांई आगळ वध्यो ज नथी, तेणे “विज्ञान”
जरा पण जाण्युं नथी, ते विज्ञानी नथी पण अज्ञानी छे. अने, भले बोंबगोळो के कृत्रिम उपग्रह शुं छे तेनी खबर पण
न होय, पण जो आत्मस्वरूपने जाणीने भवसमुद्रथी तरतां आवडयुं तो ते जीव सम्यग्विद्यामां आगळ वधी रह्यो छे,
तेणे ज साचुं “विज्ञान” जाण्युं छे, ने ते विज्ञान तेने परम शांतिनुं कारण थाय छे.
आ छे अध्यात्म–विज्ञान!
आ छे भारतनी अध्यात्मविद्या!
“सा विद्या या विमुक्तये”