Atmadharma magazine - Ank 171
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः८ः आत्मधर्मः १७१
(गाथा १७२ उपरनां अद्भुत प्रवचनोनो थोडोक नमूनो)
श्री पंचास्तिकाय गा. १७२ उपर हालमां पू.
गुरुदेवनां अद्भुत प्रवचनो थया..वीतराग मोक्षमार्ग
अने तेने साधनारा संतमुनिओनी दशा केवी होय ते
संबंधी अद्भुत भावभीनी धारा गुरुदेवे
वहेवडावी...अहा, ए प्रवचनोमां मोक्षमार्गी मुनिवरोनी
परिणतिनुं जे स्वरूप घूंटातुं तेनुं पान करवामां मुमुक्षु
श्रोताओ एकतान थई जता...ने गुरुदेवनो आत्मा तो
अध्यात्मनी मस्तीमां झूली रह्यो हतो. एवा आ
गाथाना प्रवचनोमांथी, मुमुक्षु वांचकोने माटे अहीं
थोडोक नमूनो आपीए छीएः “लीजिये..रस
पीजिये!”
मागशर सुद पांचमना रोज, १७२ मी गाथा शरू करतां पहेलां आचार्य भगवाननो अति महिमा अने
बहुमान करीने गुरुदेवे कह्युं केः वाह! आचार्य–भगवंतोए गजब काम कर्यां छे. वीतरागी मोक्षमार्गने खुल्लो मूकी दीधो
छे. असत्य सामे वीतरागी तलवार काढीने सत्य मार्गनो ढंढेरो प्रसिद्ध कर्यो छे. अहा, आवो वीतराग मार्ग! एने
‘श्रद्धवानी’ रीत पण कोई अलौकिक छे. एक सूक्ष्मरागना अंशनी पण रुचि रहे तो ते जीव वीतरागमार्गनी श्रद्धा
नहि करी शके. आनंदनी धारामां झूलता मुनिवरो वेगपूर्वक मोक्षमार्गमां परिणमता होवा छतां, वच्चे जेटलो रागनो
कण रही जाय छे तेटलो पण मोक्ष तरफनो वेग रोकाय छे. आचार्य भगवान गा. १७२मां कहे छे के–
तेथी न करवो राग जरीये क्यांय पण मोक्षेच्छुए;
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे. १७२.
जुओ, आ मोक्ष माटेना मूळ मंत्रो! आमां तो साक्षात् वीतरागतानो ज उपदेश छे. अहा, मोक्षेच्छुए क्यांय
पण अने किंचित् एटले जराय राग न करवो. राग ते भवसागरने तरवानुं साधन नथी, ते तो उदयभाव छे, ने तेनुं
फळ संसार छे; माटे मोक्षेच्छुए ते जराय कर्तव्य नथी. वीतरागभाव वडे ज भवसागरने तराय छे, माटे तरवाना
कामीए एटले के मोक्षेच्छुए साक्षात् वीतरागता ज कर्तव्य छे.
अहाहा! मोक्षेच्छुनी आ वात तो जुओ. कुंदकुंदाचार्यदेव ज्ञानना अगाध दरिया हता..आनंदमां झूलता हता..
आनंदमां झूलता झूलता वच्चे जराय रागनो विकल्प ऊठयो तेथी आ सूत्र लखाय छे. महासमर्थ होवा छतां, एमनी
केटली भद्रिकता! केटली निखालसता! (फोटामां कुंदकुंदप्रभुनी मुद्रा बतावीने घणा भावपूर्वक गुरुदेव कहे छे–) अहा!
जुओ तो खरा..केवा भद्रिक! केवा निखालस!! बस, ठरी गया