Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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माहः २४८४ः ९ः
उत्तरः– बीजो एटले चैतन्यस्वभाव; क्रोधादि आस्रवो पोते पोताने जाणता नथी, पण तेनाथी बीजो (–जुदो)
एवो जे चैतन्यभाव छे ते ज आस्रवोने जाणे छे. क्रोधादि पोते पोताने जाणता नहि होवाथी तेओ
जडस्वभावी छे, ने भगवान आत्मा तो स्व–परने जाणनार होवाथी चैतन्यस्वभावी छे–आ रीते
आत्माने आस्रवोथी भिन्नपणुं छे. क्रोध पोते पोताने जाणतो नथी के ‘हुं क्रोध छुं.’ क्रोधथी जुदुं एवुं
ज्ञान ज जाणे छे के ‘आ क्रोध छे.’ आ रीते क्रोध पोते जाणनार स्वभावी नथी, ते तो जणावा योग्य छे;
ने आत्मा पोते जाणनार स्वभावी छे–आ रीते भिन्न भिन्न लक्षण वडे आत्माने अने क्रोधादिने जुदा
ओळखवा.
(६४) प्रश्नः– आत्मा अने क्रोधादिने त्रीजा कया प्रकारे भिन्नता छे?
उत्तरः– क्रोधादि आस्रवो तो आकुळता उपजावनारां होवाथी दुःखनां कारणो छे, ने भगवान आत्मा तो सदाय
छे.
(६प) प्रश्नः– आ प्रमाणे आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नता जाणवाथी शुं थाय छे?
उत्तरः– भगवान
आत्मा तो पवित्र छे, चेतकस्वभावी छे अने आनंदस्वरूप छे, तथा आस्रवो तो अपवित्र छे,
बीजा वडे जणावा योग्य छे अने दुःखरूप छे,–आ प्रमाणे, आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नताने ज्यारे
आ आत्मा जाणे छे ते ज वखते ते पोताना पवित्र–ज्ञानानंदस्वभाव तरफ वळी जाय छे ने क्रोधादि
आस्रवोथी ते निवृत्त थाय छे.
(६६) प्रश्नः– क्रोधादि आस्रवोथी निवृत्त थाय छे–एटले शुं?
उत्तरः– आत्मा
अने क्रोधादिने ज्यां भिन्न जाण्या त्यां ते ज्ञानीने पोताना शुद्ध आत्मामां ज एकत्वबुद्धि थाय
छे, ने क्रोधादि परभावोमां एकत्वबुद्धि थती नथी, तेनुं नाम क्रोधादिथी निवृत्ति छे.
(६७) प्रश्नः– आत्मा अने आस्रवो जुदा छे एम जाणे,–पण क्रोधादिथी निवृत्ति न करे, तो?
उत्तरः– तो त्यां आत्मा अने आस्रवोनुं पारमार्थिक भेदज्ञान थयुं ज नथी. जे ज्ञान आत्मा अने क्रोधादिने
यथार्थपणे जुदा ओळखे ते ज्ञान अंर्तस्वभाव तरफ वळीने क्रोधादिथी निवृत्त थया वगर रहे ज
नहि. जो क्रोधादिमां ज एकत्वपणे वर्ते तो ते ज्ञाने क्रोधादिथी भिन्नता जाणी ज नथी, एटले के
भेदज्ञान थयुं ज नथी. यथार्थ भेदज्ञान थतां ज्ञान अवश्य आत्मस्वभाव तरफ वळी जाय छे ने
क्रोधादिथी जुदुं पडी जाय छे.–आ रीते ‘भेदज्ञान’ ने ‘क्रोधादि आस्रवोथी निवृत्ति’ साथे
अविनाभावीपणुं छे.
(६८) प्रश्नः– क्रोधादि आस्रवोथी निवृत्ति साथे ज्ञाननुं अविनाभावीपणुं छे–ए कई रीते?
उत्तरः– आत्माना
ज्ञानस्वभावने क्रोधादिथी जुदो जाणीने, ज्ञाने अंर्तस्वभावमां वळीने ज्यां तेनी रुचि करी
त्यां क्रोधादिनी रुचि छूटी गई. आ रीते ज्ञानस्वभावनी रुचिमां प्रवृत्ति थतां ज ते ज्ञान क्रोधादिनी
रुचिथी निवृत्त थई गयुं; माटे आत्मा तरफ वळीने तेमां जेणे एक्ता करी छे ते ज्ञान आस्रवोथी जरूर
पाछुं वळी गयुं छे. आ रीते ज्ञानने आस्रवोथी निवृत्ति साथे अविनाभावीपणुं छे. ज्ञान अंतर्मुख थईने
शुद्ध आत्मामां प्रवृत्ति करे अने क्रोधादिनी रुचि न टळे–एम बनतुं नथी. जो क्रोधादिनी रुचि न छूटी
होय तो ते ज्ञान नथी पण अज्ञान छे, तेणे खरेखर आस्रवोथी पोतानी भिन्नता जाणी नथी, एटले ते
आस्रवोमां ज अभेदपणे प्रवर्ते छे. जे ज्ञान क्रोधादिथी पोतानी भिन्नता जाणे ते ज्ञान क्रोधादिनी रुचि
छोडीने, अंतर्मुख स्वभाव तरफ वळ्‌या वगर रहे ज नहि.
(६९) प्रश्नः– आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नता जाणनारुं ज्ञान आस्रवोथी न निवर्ते तो?
उत्तरः– तो ते ज्ञान नथी पण अज्ञान ज छे. आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नताने जाणनारुं ज्ञान आस्रवोथी पाछुं
न वळे–एम बने ज नहि. आस्रवो साथे एकपणे वर्तनारुं ज्ञान ते खरेखर ज्ञान नथी पण अज्ञान ज
छे, ते आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नताने जाणतुं नथी. अने जे भेदज्ञान छे ते तो नियमथी