उत्तरः– बीजो एटले चैतन्यस्वभाव; क्रोधादि आस्रवो पोते पोताने जाणता नथी, पण तेनाथी बीजो (–जुदो)
जडस्वभावी छे, ने भगवान आत्मा तो स्व–परने जाणनार होवाथी चैतन्यस्वभावी छे–आ रीते
आत्माने आस्रवोथी भिन्नपणुं छे. क्रोध पोते पोताने जाणतो नथी के ‘हुं क्रोध छुं.’ क्रोधथी जुदुं एवुं
ज्ञान ज जाणे छे के ‘आ क्रोध छे.’ आ रीते क्रोध पोते जाणनार स्वभावी नथी, ते तो जणावा योग्य छे;
ने आत्मा पोते जाणनार स्वभावी छे–आ रीते भिन्न भिन्न लक्षण वडे आत्माने अने क्रोधादिने जुदा
ओळखवा.
उत्तरः– क्रोधादि आस्रवो तो आकुळता उपजावनारां होवाथी दुःखनां कारणो छे, ने भगवान आत्मा तो सदाय
उत्तरः– भगवान
आ आत्मा जाणे छे ते ज वखते ते पोताना पवित्र–ज्ञानानंदस्वभाव तरफ वळी जाय छे ने क्रोधादि
आस्रवोथी ते निवृत्त थाय छे.
उत्तरः– आत्मा
उत्तरः– तो त्यां आत्मा अने आस्रवोनुं पारमार्थिक भेदज्ञान थयुं ज नथी. जे ज्ञान आत्मा अने क्रोधादिने
नहि. जो क्रोधादिमां ज एकत्वपणे वर्ते तो ते ज्ञाने क्रोधादिथी भिन्नता जाणी ज नथी, एटले के
भेदज्ञान थयुं ज नथी. यथार्थ भेदज्ञान थतां ज्ञान अवश्य आत्मस्वभाव तरफ वळी जाय छे ने
क्रोधादिथी जुदुं पडी जाय छे.–आ रीते ‘भेदज्ञान’ ने ‘क्रोधादि आस्रवोथी निवृत्ति’ साथे
अविनाभावीपणुं छे.
उत्तरः– आत्माना
रुचिथी निवृत्त थई गयुं; माटे आत्मा तरफ वळीने तेमां जेणे एक्ता करी छे ते ज्ञान आस्रवोथी जरूर
पाछुं वळी गयुं छे. आ रीते ज्ञानने आस्रवोथी निवृत्ति साथे अविनाभावीपणुं छे. ज्ञान अंतर्मुख थईने
शुद्ध आत्मामां प्रवृत्ति करे अने क्रोधादिनी रुचि न टळे–एम बनतुं नथी. जो क्रोधादिनी रुचि न छूटी
होय तो ते ज्ञान नथी पण अज्ञान छे, तेणे खरेखर आस्रवोथी पोतानी भिन्नता जाणी नथी, एटले ते
आस्रवोमां ज अभेदपणे प्रवर्ते छे. जे ज्ञान क्रोधादिथी पोतानी भिन्नता जाणे ते ज्ञान क्रोधादिनी रुचि
छोडीने, अंतर्मुख स्वभाव तरफ वळ्या वगर रहे ज नहि.
उत्तरः– तो ते ज्ञान नथी पण अज्ञान ज छे. आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नताने जाणनारुं ज्ञान आस्रवोथी पाछुं
छे, ते आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नताने जाणतुं नथी. अने जे भेदज्ञान छे ते तो नियमथी