Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 25

background image
ः १०ः आत्मधर्मः १७२
आस्रवोथी जुदुं ज वर्ते छे, माटे भेदज्ञानवडे ज बंधनो निरोध सिद्ध थाय छे.
(७०) प्रश्नः– आम सिद्ध थतां शुं थयुं?
उत्तरः–
रीते भेदज्ञानवडे ज बंधनो निरोध सिद्ध थतां ‘अज्ञाननो अंश एवा क्रियानय’ नुं खंडन थयुं.
(७१) प्रश्नः– “अज्ञाननो अंश एवो क्रियानय” एटले शुं?
उत्तरः–
भेदज्ञान वगर, अज्ञानपूर्वकना एकला मंदरागरूप क्रियाथी बंधननो निरोध थवानुं मानवुं ते
“अज्ञाननो अंश एवो क्रियानय” छे; अहीं भेदज्ञान वडे ज बंधनो निरोध थवानुं सिद्ध थतां ते
क्रियानयनुं खंडन थयुं.
(७२) प्रश्नः– अहीं बीजा कया नयनुं खंडन थयुं?
उत्तरः– अहीं
एकांत ‘ज्ञाननय’ नुं पण खंडन थयुं.
(७३) प्रश्नः– एकांत ज्ञाननयनुं खंडन कई रीते थयुं?
उत्तरः– आत्मा
अने आस्रवोने जाणनारुं जे ज्ञान छे ते पण जो आत्मा तरफ न वळे ने आस्रवोथी जुदुं न पडे,
तो ते ज्ञान नथी पण अज्ञान ज छे–एम सिद्ध थवाथी, ‘ज्ञाननो अंश एवा एकांत ज्ञाननय’ नुं पण
खंडन थयुं.
(७४) प्रश्नः– एकांत ज्ञाननय एटले शुं?
उत्तरः– आत्मा
अने आस्रव जुदा–एम शास्त्रथी जाणपणुं तो करे, पण पोताना ज्ञानने अंतरमां आत्मस्वभाव
तरफ वाळे नहि ने आस्रवोथी जुदुं पाडे नहि, मात्र जाणपणाथी बंधन अटकी जशे एम मानीने एकला
जाणपणामां अटकी जाय–तो ते ‘एकांत ज्ञाननय’ छे. आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नता जाणवानुं
तात्पर्य तो ए हतुं के आत्मस्वभावमां अंतर्मुख थवुं ने आस्रवोथी परांगमुख थवुं. तेने बदले
आस्रवोमां ज एकमेकपणे वर्त्या करे तो ते ज्ञान वडे बंधननो निरोध सिद्ध थतो नथी; ए रीते ते एकांत
ज्ञाननयनुं खंडन थयुं एटले के ते ज्ञान नथी पण अज्ञान ज छे एम नक्की थयुं.
(७प) प्रश्नः– आत्माने अने आस्रवोने जुदा कई रीते जाणवा?
उत्तरः–
आ भगवान आत्मा तो पवित्र छे, ज्ञाता छे अने सुखस्वरूप छे; तथा क्रोधादि आस्रवो अपवित्र छे,
जड छे अने दुःखनां कारण छे;–आ रीते लक्षणभेद वडे आत्मा अने आस्रवोने जुदा जाणवा.
(७६) प्रश्नः– आत्मा अने आस्रवोने जुदा जाणीने शुं करवुं?
उत्तरः–
ज्ञानस्वभावी आत्मा तो हुं छुं–एम जाणीने तेमां तो ज्ञाननी एकता करवी, अने क्रोधादि माराथी
भिन्न छे,–एम जाणीने तेनी साथेनी एकता छोडवी; एटले के ज्ञानस्वभावमां प्रवर्तवुं ने आस्रवोथी
निवर्तवुं.
(७७) प्रश्नः– भेदज्ञानी जीव आस्रवोथी निवर्तेलो होय–ए नियम कह्यो. सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वादि आस्रवोथी तो
निवृत्ति छे, परंतु तेने य हजी बीजी केटलीक कर्मप्रवृत्तिओनो आस्रवो तो थाय छे;–आ रीते आस्रव होवा
छतां तेने भेदज्ञान कई रीते छे?
उत्तरः– सम्यग्द्रष्टि–भेदज्ञानीने जो के पोतानी अस्थिरताना रागादिभावने लीधे अमुक आस्रव थाय छे, तो पण
तेनुं ज्ञान ते आस्रवोमां एकत्वबुद्धिथी प्रवर्ततुं नथी पण भिन्नतारूपे ज वर्ते छे. आस्रवोमां एकपणे
नहि वर्ततुं होवाथी तेनुं ज्ञान आस्रवोथी निवर्तेलुं ज छे, ने तेथी तेने भेदज्ञान छे ज.
(७८) प्रश्नः– भेदज्ञान केवी रीते उदय पामे छे?
उत्तरः–
जे भेदज्ञान छे ते परपरिणतिने छोडतुं ने चैतन्यना आनंदमां केलि करतुं उदय पामे छे. अहो! आवा
भेदज्ञानमां विकार साथे एकता के कर्मनुं बंधन केम होय?–न ज होय.
जयवंत वर्तो आवुं भेदज्ञान!
(७९) प्रश्नः– ज्ञानीने राग होय?
उत्तरः– हा,
ज्ञानीने पण अस्थिरतानी भूमिकामां राग होय छे.
(८०) प्रश्नः– राग होवा छतां ज्ञान होय?
उत्तरः– हा;
भेदज्ञानीने राग होवा छतां ज्ञान पण होय छे.
(८१) प्रश्नः– राग ज्ञानीने पण होय ने अज्ञानीने पण होय–तेमां शुं फेर?