ः ८ः आत्मधर्मः १७२
(श्री समयसार कर्ताकर्म अधिकार उपरना प्रवचनोमांथी)
(शरूआतना प्रश्नोत्तर माटे “आत्मधर्म” अंक १पप जुओ)
अशुचीपणुं, विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःख कारणो, एथी निवर्तन जीव करे. ७२
आचार्य भगवान कहे छे के आत्मा अने आस्रवोना भेदज्ञानथी ज बंधनो निरोध थाय छे.
हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं अने आ क्रोधादि आस्रवो माराथी विपरीत स्वभाववाळां अशुचीरूप तथा
दुःखनां कारणो छे–एम जाणीने ज्यारे जीव पोताना ज्ञान स्वभाव तरफ ढळे छे त्यारे तेने क्रोधादि
आस्रवोथी निवृत्ति थाय छे, अने तेथी तेने बंधन थतुं नथी. आ रीते स्वभाव तरफ वळेला ज्ञानमात्रथी
ज बंधन अटकी जाय छे.
आ भगवान आत्मा सदाय अति निर्मळ चैतन्यमात्र स्वभावपणे अनुभवातो होवाथी अत्यंत पवित्र छे.
जेम पाणीमां सेवाळ ते मेल छे, तेम आ चैतन्यस्वरूप आत्मामां क्रोधादि आस्रवो ते मेलपणे
अनुभवाता होवाथी अशुची छे–अपवित्र छे.
(६१) प्रश्नः– आत्मा अने क्रोधादिने भिन्नता कई रीते छे?
उत्तरः– आत्मा
तो अत्यंत पवित्र छे ने क्रोधादि मलिन–अपवित्र छे, तेथी तेमने जुदापणुं छे.
आ भगवान आत्मा तो पोते ज सदाय विज्ञानघनस्वभाववाळो होवाथी स्व–परनो चेतक छे; अने
क्रोधादि आस्रवोने जडस्वभावपणुं होवाथी तेओ स्व–परने जाणता नथी, तेओ तो बीजा वडे जणावा
योग्य छे;–ए रीते आत्मा अने क्रोधादिने भिन्नपणुं छे.
(६३) प्रश्नः– क्रोधादि बीजा वडे जणावा योग्य छे–तेमां ‘बीजा’ एटले कोण?
उद्यमी, स्नेहबंधनथी रहित सिंह जेवा निर्भय, समुद्र जेवा गंभीर, मेरु जेवा निश्चल, यथाजात दिगंबर रूपना धारक,
शत्रु के मित्र, महेल के जंगल, सुख के दुःख, रत्न के रजकण–ए सर्वे जेने समान छे एवा वीतरागी,–ते शास्त्रोक्त
मुनिमार्गमां विचरी रह्या छे, तपना प्रभावथी अनेक ऋद्धिओ प्रगटी छे पण एनुं चित्त तो चैतन्यनी केवळज्ञानऋद्धि
प्राप्त करवामां लागेलुं छे, कोमळ पगमां सोय जेवा कांटा खूंची जाय छे पण ते तरफ कांई लक्ष नथी. आवा
भरतमुनिराजे शुक्लध्याननी श्रेणी वडे मोहनो नाश करीने, लोकालोकप्रकाशक एवुं केवळज्ञान प्रगट कर्युं; अने पछी
अघाती कर्मोने पण नष्ट करीने सिद्धपद पाम्या.–तेमने अमारा अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार हो!
कैकेयीपुत्र वैरागी भरतनुं आ पवित्र चरित्र भक्तिपूर्वक जे वांचशे–सांभळशे तेने वैराग्यादिनी वृद्धि थईने
आत्महितनी प्राप्ति थशे.
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