Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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माहः २४८४ः ७ः
हाथीना पूर्वभवो सांभळीने, श्री राम–लक्ष्मण वगेरे सर्वे भव्य जीवो आश्चर्य पाम्या..आखी सभा स्तब्ध थई गई.
जेने अविनाशी मोक्षपदने साधवा माटे साधु थवानी अभिलाषा छे, अने जेनुं चित्त गुरुओना
चरणोमां विनयथी नम्रीभूत छे, एवो भरत अत्यंत वैराग्यथी ऊभो थईने, केवळी प्रभुने प्रणाम करीने
कहेवा लाग्योः
“हे नाथ! हुं संसारवनने विषे भ्रमण करतो थको बहु दुःखी थयो; हवे आ संसार भ्रमणथी हुं
थाकयो..हे प्रभो! मुक्तिना कारणरूप आपनी दिगंबर जिनदीक्षा मने आपो. आशाना तरंगोथी उछळती
चार गतिरूप नदीमां हुं डूबुं छुं तेमांथी, हे स्वामी! हस्तावलंबन दईने मने उगारो..” आम कहीने,
केवळी
भगवाननी आज्ञा अनुसार जेणे समस्त परिग्रह छोडी दीधो छे एवा ते परम सम्यक्त्वी भरतराजे, पोताना
कोमळ हाथ वडे शिरना केशनो लोच कर्यो, ने महाव्रत अंगीकार करीने जिनदीक्षा धारण करी. अहा! भरतनी
दीक्षाना आ प्रसंगे आकाशमां देवो “धन्य..धन्य” कहेता थका पुष्पवृष्टि करवा लाग्या. हजारथी पण वधारे
राजाओ भरतना अनुरागने लीधे विरक्त थईने, राजऋद्धि छोडी भरतनी साथे ज जिनदीक्षा धारण करीने मुनि
थया, अने केटलाक अणुव्रतधारी श्रावक थया.
माता कैकेयी, पोताना पुत्रनो वैराग्य अने दीक्षा देखीने, अश्रुपात करती तीव्र मोहने लीधे मूर्च्छित
थईने जमीन पर पडी. थोडीवारे भानमां आवतां, जेम वाछडाना वियोगमां गाय पुकार करे तेम विलाप
करवा लागीः ‘हाय पुत्र! तारा विना हवे हुं केम जीवीश!!’–आ प्रमाणे विलाप करती माताने धैर्य बंधावतां
राम–लक्ष्मणे कह्युंः हे माता! भरत तो पहेलेथी ज महाविवेकी, ज्ञानवान अने संसारथी अत्यंत विरक्त हतो;
तेनो शोक तजो. शुं अमे पण तमारा पुत्रो नथी? अमे तमारा आज्ञाकारी किंकर छीए. कौशल्या–सुमित्रा
तेमज सुप्रभाए पण कैकेयीने घणुं संबोधन कर्युं. तेथी शोकरहित थईने ते प्रतिबोध पामी. शुद्ध मन वडे
पोताना मोहनी ते निंदा करवा लागी, अरे! धिक्कार छे आ स्त्री पर्यायने; हवे जिनदीक्षा धारण करीने
एवो उपाय करुं के जेथी फरीने स्त्रीपर्याय न धरुं ने भवसागरने तरुं. आम आम विचारी महाज्ञानवान
अने सदा जिनशासननी भक्त एवी ते कैकेयी, महावैराग्यथी पृथ्वीमती आर्यिकानी पासे आर्यिका थई.
निर्मळ सम्यक्त्वनी धारक कैकेयीए समस्त परिग्रह त्यागीने मात्र एक श्वेतवस्त्र धारण कर्युं. तेनी साथे बीजी
त्रणसो स्त्रीओ आर्यिका थई. अने बीजा अनेक जीवोए श्री देशभूषण–कूलभूषण केळवी भगवाननी समीपे
श्रावक–श्राविकाना व्रत धारण कर्यां.
– आ बाजुं त्रिलोकमंडन हाथीए पण अति प्रशांतचित्त थईने केवळी प्रभुनी नीकटमां श्रावकना
व्रत धारण कर्या. सम्यग्दर्शन संयुक्त अने महाज्ञानी एवो ते हाथी धर्मने विषे तत्पर थयो; वैराग्यपूर्वक
पंदर–पंदर दिवसना, के महिना–महिनाना उपवास करवा लाग्यो, ने सुकां पान वडे पारणुं करतो हतो.
संसारथी भयभीत अने उत्तम चेष्टामां परायण एवो ते त्रिलोकमंडन हाथी लोको वडे पूज्य एवी
महाविशुद्धिने धारण करतो पृथ्वीने विषे वनजंगलमां विचरवा लाग्यो. क्यारेक पंदर दिवसना, तो क्यारेक
महिनाना उपवास करीने तेना पारणे ज्यारे गाममां आवे छे त्यारे श्रावको अतिभक्तिपूर्वक शुद्ध अन्न
जळवडे तेने पारणुं करावे छे. (सोनगढ–स्वाध्याय मंदिरमां आ प्रसंगनुं चित्र छे.) जेनुं शरीर क्षीण थई गयुं
छे अने वैराग्यरूपी खीले जे बंधायेलो छे एवो ते हाथी उग्र तप करतो हतो, ने धीमे धीमे आहार त्यागीने
अंतसल्लेखनापूर्वक शरीर तजीने छठ्ठा स्वर्गमां देव थयो. पहेलां छठ्ठा स्वर्गेथी आव्यो हतो ने छठ्ठा स्वर्गे ज
गयो; त्यांथी परंपरा मोक्ष पामशे.
आ तरफ, परम वैरागी महामुनि भरत जगतना गुरु, निर्गंथ, महावीर, पवन जेवा असंग, पृथ्वी जेवा
क्षमावंत, जल समान निर्मल, कर्मोने अग्नि समान भस्म करनार, आकाश जेवा अलेप, चार आराधनामां