Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १७२
निश्चलपणे शांतचित्ते आंखो मींचीने ध्यानारूढ ऊभो रहे छे; गीत सांभळतो नथी, नृत्य देखतो नथी–खबर नथी
पडती के एना मनमां शुं छे? आ सांभळीने बंने भाई पण चिंतावान थईने विचारवा लाग्या के हाथी गजबंधन
तोडीने शा माटे भाग्यो? ने पाछो! अचानक भरत पासे केम क्षमावान बनी गयो? ने त्यारथी ते आहार–पाणी केम
नथी लेतो?
–एवामां, अनेक मुनिओ सहित श्री देशभूषण–कूलभूषण केवळी भगवंतो अयोध्यामां पधार्या,–आ ते ज
मुनिओ छे के विदेशगमन वखते श्रीराम–लक्ष्मणे जेमनो उपसर्ग दूर करीने भक्ति करी हती. केवळी भगवंतोनुं
आगमन सांभळतां ज भरत वगेरेने घणी प्रसन्नता थई, ने त्रिलोकमंडन हाथी उपर बेसीने राम–लक्ष्मण–भरत–
शत्रुघ्न तेमना दर्शने गया;
साथे कौशल्या–सुमित्रा–कैकेयी अने सुप्रभा ए चारे राजमाताओ पण अनेक राणीओ
सहित गयां; सुग्रीव आदि अनेक विद्याधर राजाओ पण साथे चाल्या. दूरथी ज केवळी भगवानने जोतां राम वगेरे
हाथी उपरथी उतरी गया, ने भगवान समीप जईने विनयपूर्वक दर्शन–पूजनादि कर्या, अने वैराग्यउत्पादक ने रागनो
नाशक एवो भगवाननो उपदेश सांभळ्‌यो; सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते मोक्षनुं कारण छे–एनुं वर्णन दिव्यध्वनिमां
सांभळ्‌युं.
आ प्रसंगे लक्ष्मणे पूछयुंः प्रभो! आ त्रिलोकमंडन हाथी बंधन तोडीने क्रोधित थयो अने भरतने देखतां
तत्काळ पाछो शांत थई गयो, अने खानपानथी पण विरक्त थई गयो तेनुं शुं कारण?
त्यारे दिव्यध्वनि द्वारा भगवान देशभूषण कहेवा लाग्याः प्रथम तो लोकोनी भीड देखीने मदोन्मत्तपणाने लीधे
ते हाथी क्षुभित थयो ने पछी भरतने जोतां पोतानो पूर्वभव विचारी ते शांत अने विरक्त थयो. आ भरतने अने
हाथीने घणा भवथी संबंध चाल्यो आवे छे.
भगवान ऋषभदेवना वखतमां तेओ बंने सूर्योदय अने चंद्रोदय
नामना भाईओ हता, त्यारे मारीचीना संबंधथी मिथ्यात्वना सेवन वडे कुधर्मनुं आचरण करीने अनेक भवोमां
भमतां भमतां, विमलनाथ भगवानना वखतमां ते बंने हरण थयेला; ते वखते स्वयंभूति नामना त्रीजा नारायणे
तेमने पकडी जिनमंदिरनी पासे राखेला. जिनमंदिरनी समीप होवाने कारणे ते हरणोने अनेक मुनिओना दर्शन
थतां ने जिनवाणीनुं श्रवण थतुं.
त्यांथी भरतनो जीव तो, वच्चे स्वर्गादिना केटलाक अवतार करीने, पश्चिम विदेहक्षेत्रमां चक्रवर्तीनो पुत्र
थयेल, त्यां त्रण हजार राणीओ सहित होवा छतां, संसारथी अत्यंत विरक्तपणाने लीधे तीक्ष्ण असिधारा व्रतनुं
पालन करी, छठ्ठा–बह्मोत्तर स्वर्गमां गयो.
अने हाथीनो जीव, वच्चे अनेक अवतार करीने, एक राजाने त्यां मृदुमती नामनो पुत्र थयेल; मृदुमतीना
भवमां विषयकषायोथी विरक्त थईने मुनि थयेल. एक वार एक नगरनी समीपना पर्वत उपर कोई गुणनिधान
महामुनि चार मासना उपवास करीने रहेला. चार मास पूर्ण थतां ते गुणनिधान मुनि तो बीजे विहार करी गया; ने
ते वखते मृदुमति मुनि ते नगरमां आव्या. नगरीना लोकोए मृदुमति मुनिने ज पूर्वोक्त चार मासना उपवास
करनारा मुनि समजीने घणा आदरथी तेमनी प्रशंसादिक करीने आहारादि आप्यां. आणे पण जाण्युं के पर्वत उपर चार
मास उपवास करीने रहेला महामुनिने भरोसे लोको भ्रमथी मारी अधिक प्रशंसा करी रह्या छे–आम जाणवा छतां
मानने लीधे तेणे न तो लोको पासे कंई खुलासो कर्यो, के न गुरु पासे प्रायश्चित करीने शल्य दूर कर्युं; आ तीव्र
मायाशल्य ज तेने तिर्यंच अवतारनुं कारण थयुं. अहींथी तो ते मृदुमति मुनि छठ्ठा स्वर्गे–भरतना जीवनी साथे
उपज्यांं.
आ रीते छठ्ठा स्वर्गमां भरत अने हाथी बंनेना जीवो साथे हता; त्यांथी एक तो आ भरत तरीके उपज्यो ने
बीजो हाथी तरीके उपज्यो. पूर्व भवोना संबंधने लीधे, भरतने जोतां ज, जातिस्मरण थवाथी हाथी शांत थई गयो, ने
संसारथी विरक्त थईने आत्महितनुं चिंतन करतो थको खानपानथी पण उदास वर्ते छे. भरत तो आज भवे मोक्ष
पामनार चरमशरीरी छे, ने हाथीनो जीव पण निकट भव्य छे. रत्नत्रयरूप वीतरागी जिन धर्म ज मोक्षप्राप्ति
कराववा समर्थ छे, माटे भव्यजीवो तेनुं आराधन करो.
श्री देशभूषण केवळीना मुखथी मोहअंधकारने हरनारा ने संसारसागरथी तारनारा आवा महापवित्र वचनो
सांभळीने, अने तेमां भरतना तथा